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अमूर्त चिन्तन
व्यक्ति ध्यान को छोड़ देता है। जब तक द्रष्टभाव का विकास नहीं होता तब तक स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सकता । प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से द्रष्टाभाव विकसित होता है। प्रेक्षाध्यान से वह सुस्थिर होता है । हमारी चेतना की ऐसी अवस्था निर्मित हो जाती है कि जो कुछ घटित होता है वह देखा जाता है, प्रतिक्रिया नहीं होती । साधक मात्र द्रष्टा रहे, प्रतिक्रिया न करे । द्रष्टाभाव का विकास होते ही प्रतिक्रियाएं पीछे रह जाती हैं ।
प्रेक्षा ही तटस्थता
मध्यस्थता या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है । जो देखता है वह सम रहता है । वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों की उपेक्षा करता है - दोनों को निकटता से देखता है इसलिए वह उनके प्रति सम, मध्यस्थ या तटस्थ रह सकता है । उपेक्षा या मध्यस्थता को प्रेक्षा से पृथक् नहीं किया जा सकता। जो इस महान् लोक की उपेक्षा करता है, उसे निकटता से देखता है, वह अप्रमत्त विहार कर सकता है ।
चक्षु दृश्य को देखता है, पर उसे न निर्मित करता है और न उसका फल-भोग करता है। वह अकारक और अवेदक है। इसी प्रकार चैतन्य भी अकारक और अवेदक है। ज्ञानी जब केवल जानता या देखता है तब न वह कर्मबंध करता है और न विपाक में आए हुए कर्म का वेदन करता है । जिसे केवल जानने या देखने का अभ्यास उपलब्ध हो जाता है वह व्याधि या अन्य आगन्तुक कष्ट को देख लेता है, जान लेता है पर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता। इस वेदना की प्रेक्षा से कष्ट की अनुभूति ही कम नहीं होती किंतु कर्म बन्ध, सत्ता, उदय और निर्जरा को देखने की क्षमता भी विकसित हो जाती है ।
प्रश्न होता है कि किसे देखें ? क्या देखें ? अच्छा-बुरा जो भी आए उसे देखें। क्रोध आए तो उसे भी देखो। मान आए तो उसे भी देखो । वास्तव में जो क्रोध को देखता है, वही मान को देखता है । क्रोध हमारी सबसे स्थूल वृत्ति है । यह सबके समक्ष प्रत्यक्ष होती है। मान छिपा रहता है । प्रकट क होता है । क्रोध तत्काल प्रकट हो जाता है। क्रोध को देखो, मान को देखो । इसका पूरा चक्र है। देखते-देखते दु:ख तक चले जाओ। दुःख को देखना प्रारम्भ करो। उपायों को देखो, हेतुओं को देखो। आतंक को देखो । परिणाम को देखो। क्रोध का परिणाम है - दुःख । दुःख को देखो । सुख को भी देखो । सुख के संवेदनों को देखो । दुःख के स्पन्दनों को देखो । समत्व को देखो
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