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उपेक्षा भावना
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बहुत बड़ी भ्रांति हो गई । ज्ञान की धारा भिन्न है । मूर्च्छा की धारा भिन्न है । राग और द्वेष की धारा ज्ञानधारा के साथ जुड़ जाती है और हम दोनों को एक मानकर प्रियता और अप्रियता के भ्रम में फंस जाते हैं ।
जब यह भ्रांति टूटती है, हमें अपने चैतन्य का अनुभव होता है, तब इन्द्रिय-संवर सहज घटित हो सकता है। बेचारा हरिण दौड़ रहा है मृग मरीचिका के पीछे। सूरज की किरणें ताल में पड़ती हैं । मृग को लगता है कि वहां पानी लहलहा रहा है। वह पानी पीने दौड़ता है। निकट जाने पर वहां पानी नहीं मिलता। वहां से देखने पर आगे पानी दीखता है। वहां जाता है, पर पानी नहीं मिलता। वह इस दौड़धूप में प्राण गवां बैठता है ।
विवेक की निष्पत्ति-तटस्थता
अस्तित्व की झलक का पहला फल है-विवेक । इमारी चेतना के जागरण की पहली भूमिका है - विवेक । विवेक की निष्पत्ति है - तटस्थता । यह चेतना के जागरण की दूसरी भूमिका है। तटस्थता अर्थात् उपेक्षा । उपेक्षा के दो अर्थ हैं- ध्यान न देना और निकटता से देखना । उप + ईक्षा = उपेक्षा । जो तटस्थ होता है वही निकटता से देख सकता है। पक्षपात में रहने वाला निकटता से नहीं देख सकता। वह प्रिय के प्रति अनुरक्त होगा और अप्रिय के प्रति द्विष्ट होगा । वह एक के प्रति राग करेगा और दूसरे के प्रति द्वेष करेगा । जिसमें झुकाव होता है वह सही अर्थ में निकटता से नहीं देख सकता । वह दूर से ही देखता है । न प्रिय को ठीक से समझ सकता है और न अप्रिय को ठीक से समझ सकता है ।
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उपेक्षा का एक अर्थ है- ध्यान न देना, अवगणना करना । जो तटस्थ हो जाता है, उसके सामने प्रिय भी आता है, अप्रिय भी आता है किंतु वह दोनों की उपेक्षा कर, अवगणना कर आगे बढ़ जाता है । उपेक्षा का फल है- समता । विवेक का फल है-तटस्थता । तटस्थता का फल है- उपेक्षा । उपेक्षा का फल है - समता ।
अतीत को क्षीण करने का एकमात्र उपाय है- द्रष्टाभाव का विकास । जिस व्यक्ति ने अपने द्रष्टाभाव को विकसित कर लिया उसने अतीत से अपना पिंड छुड़ा लिया। जिसने द्रष्टाभाव का विकास नहीं किया, उसे अतीत भूत की भांति सताता रहता है। जब वह ध्यान करने बैठता है तब हजारों प्रकार की वासनाएं उभर आती हैं। व्यक्ति निराश हो जाता है। सोचता है- ध्यान मेरे वश की बात नहीं है। ध्यान मन की शांति के लिए करता हूं किन्तु ध्यान करने के लिए बैठते ही मन अशांत हो जाता है। वह निराश
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