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अमूर्त चिन्तन
इन विपरीत आचरणों के प्रति उदासीन रहूं। उनके प्रति अन्यथा भाव न आए। मैं यही सोचूं कि मैंने अपना काम कर लिया। वे सब अपना काम करते हैं, मुझे क्या !
आचार्य सोमदेव ने लिखा है-समता परमं आचरणम्। आचार का सबसे बड़ा सूत्र है-समता, साम्यभाव, समानता। यह केवल समाजवाद का साम्यवाद का ही सूत्र नहीं है। यह हर चिन्तन की अच्छाई का सूत्र है कि जहां समतापूर्ण मन:स्थिति होती है, वहां समाज का विकास होता है और जहां समाज की आचारधारा में विषमता होती है, वहां समाज का पतन होता है। आचार के परिष्कार का अर्थ है-समता का विकास। तटस्थता कैसे ?
पूछा गया, तटस्थता कैसे संभव हो सकती है ? मैंने कहा-तटस्थता इन्द्रिय-संवर के द्वारा फलित होती है। जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय-संवर साध लिया, वह तटस्थ हो जाता है। जब मन से प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है, तब पदार्थ पदार्थ मात्र रह जाता है, प्राणी प्राणी मात्र रह जाता है। हम कह देते हैं, अच्छी वस्तु के साथ हमारी प्रियता जुड़ती है यह भ्रांति है। वस्तु रुचिकर लगती है प्रियता के कारण, वस्तु अरुचिकर लगती है अप्रियता के कारण। प्रियता और अप्रियता के संस्कार धुल जाने पर वस्तु वस्तु रहती है, पदार्थ पदार्थ रहता है। क्या यह संभव है कि प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाए ? बहुत सम्भव है। यदि हम प्रायोगिक जीवन जीएं तो ऐसा सम्भव है कि पदार्थ है, प्राणी है, किन्तु प्रियता और अप्रियता का संस्कार समाप्त। प्रश्न होता है-क्या आंखों और कानों को बन्द रखें ? क्या इन्द्रियों के दरवाजों को बन्द रखें ? जिससे कि यह स्थिति बन जाए। इन्द्रियों के दरवाजों को दीर्घकाल तक बन्द रखा जा सकता है। जीवन की लम्बी अवधि में, इस दीर्घकालीन यात्रा में यह कभी सम्भव नहीं है कि आदमी आंख बन्द कर बैठ जाए, कानों के परदे फाड़ दे। यह कभी सम्भव नहीं है। इन्द्रियों के द्वार खुले रहेंगे। द्वार खुले रहेंगे, पानी आयेगा पर गन्दगी नहीं आएगी। इन्द्रियों का काम है जागना, संवेदन करना, ज्ञान करना। लोगों ने भ्रांतिवश यह मान लिया है कि इन्द्रियों का काम है-राग-द्वेष करना, प्रियता और अप्रियता करना। यह काम इन्द्रियों का काम नहीं है। आंख का काम मूर्च्छित होना नहीं है। आंख का काम प्रियता-अप्रियता पैदा करना नहीं है। आंख तो ज्ञान की एक धारा है, चैतन्य की एक धारा है। इसमें कैसी प्रियता और कैसी अप्रियता ! ज्ञान और मूर्छा के योग को हमने एक मान लिया, वह
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