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________________ उपेक्षा भावना अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों स्थितियों में सर्वत्र सम रहना 'उपेक्षा' है। साधक को न पदार्थों से जुड़ना है और न बिछुड़ना है। पदार्थ पदार्थ है। उसमें राग-द्वेष नहीं है। राग-द्वेष है अपने भीतर। जब आदमी किसी से जुड़ता है तो राग और बिछुड़ता या घृणा करता है तो द्वेष आता है। साधक को जहां कहीं भी राग और द्वेष दिखाई दे, तत्काल उनकी उपेक्षा कर अपने भीतर चला जाये। यह जैसे पदार्थों के साथ होता है, वैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व, रूप, विशिष्ट कौशल आदि पर भी होता है। भिक्षु वक्कलि बुद्ध के रूप पर इतना मुग्ध हो गया, बस, उसे ही निहारता रहता। बुद्ध ने कहा-क्या है वक्कलि मेरे इस शरीर में ? जैसा हाड़, मांस, रक्त आदि तुम्हारे शरीर में है, वैसा ही इसमें है। रूप को देखना है, तो बुद्ध के धर्म-कार्य का रूप देखो। जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है। यह भी बन्धन है। आनन्द बुद्ध से बन्धे रहे। गौतम महावीर से बन्धे रहे। बन्धन का मार्ग सरल है। मनुष्य बन्धन-प्रिय है। पर वह बन्धन छोड़ता है तो दूसरा कहीं न कहीं जोड़ लेता है। उपेक्षा करना कठिन है। उपेक्षा भावना का साधक कहीं किसी भी जड़ और चेतन के साथ बन्धता नहीं। वह आने वाले समस्त बन्धनों की उपेक्षा कर तटस्थ भाव से अपने ध्येय में गति करता रहता है। अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने। संसद में भाषण देने जब खड़े हुए तब किसी ने व्यंग्य कसा। कहा-आपको याद है, आप चमार के लड़के हैं। लिंकन ने कहा-धन्यवाद, आपने पिता का स्मरण दिलाया और आगे आपसे कहना चाहता हूं, मेरे पिताजी कुशल चमार थे। मैं इतना कुशल राष्ट्रपति नहीं बन सकूँगा। दूसरी बार फिर कहा-वे जूते बनाते थे। लिंकन बिलकुल उत्तेजित नहीं हुए। उसी तटस्थ भाव से कहा-'हां', किन्तु किसी ने भी कोई शिकायत नहीं की। क्या आपको कोई शिकायत है ?' __ साधक जब उपेक्षा भावना में निष्णात हो जाता है तब हर्ष और विषाद, सुख और दुःख, सम्मान और अपमान आदि द्वन्द्व सहजतया क्षीण होते चले जाते हैं। ___मध्यस्थ भाव की इसीलिए आचार्य ने अभ्यर्थना की है-प्रभो ! जो मेरी निंदा करते हैं. अवज्ञा करते हैं, मुझसे विपरीत व्यवहार करते हैं, मेरी बात नहीं मानते, उन सबके प्रति मेरे मन में मध्यस्थता का भाव जागे । मैं उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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