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अमूर्त चिन्तन
जितना विकसित होना चाहिए उतना विकसित नहीं हुआ है। इसमें दोषी सभी हैं। हम किसी एक को दोषी नहीं बता सकते। एक मिल मालिक अपने मजदूरों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है तो मजदूर भी दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करते हैं। एक बड़ा अफसर अपने अधीनस्थ छोटे अफसरों के प्रति क्रूरता का व्यवहार करता है तो वे छोटे अफसर अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के प्रति वैसा ही व्यवहार करते हैं। जिस किसी के पास थोड़ी भी सत्ता है, शक्ति है, क्रूरता का व्यवहार न करे, यह नहीं देखा जाता। सब दोषी हैं। कोई भी दोष-मुक्त नहीं है। सत्ता न मिले, कुर्सी न मिले, तब तक सब ठीक हैं, नम्र हैं। जब सत्ता हस्तगत हो जाती है, फिर न जाने क्यों सारा व्यवहार बदल जाता है, नम्रता समाप्त हो जाती है, क्रूरता का व्यवहार हो जाता है, बड़प्पन की भावना पनपती है और फिर वह सबको प्रतिद्विष्ट मानता है।
जब सत्ता आती है तब आदमी अन्धा हो जाता है। वह न्याय के स्थान पर अन्याय अधिक करता है। सत्ता और शक्ति का दुरुपयोग न हो, धन और शक्ति का दुरुपयोग न हो तो मानना चाहिए कि मानवीय दृष्टिकोण का विकास हुआ है। तब समझना चाहिए कि करुणा की ज्योति, करुणा की दीपशिखा प्रज्वलित हुई है। यह होने पर ही अन्याय मिट सकता है, आदमी को आदमी समझकर न्यायपूर्ण व्यवहार हो सकता है। यह निश्चित है कि किसी के पास पैसा कम हो, किसी के पास पैसा अधिक हो, किसी के पास अधिकार अधिक हो और किसी के पास कम अधिकार हो, यह भेद बुद्धि और शक्ति के तारतम्य पर आधारित है। यह होता है। कभी ऐसा नहीं होता कि सबमें बुद्धि और शक्ति समान हो। तरतमता बनी रहती है। पर अन्ततः आदमी आदमी है। यदि यह तथ्य अनुभूत होता है तो आदमी की संवेदनशीलता बढ़ती है और तब समस्याओं का समाधान हो सकता है।
सामाजिक स्वास्थ्य का सूत्र है-करुणा। जीवन में करुणा का विकास हो, संवेदनशीलता जागे और मनुष्य प्राणी जगत् के प्रति करुणार्द्र बना रहे। ऐसा होने पर ही क्रूरता समाप्त हो सकती है।
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