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करुणा भावना
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सुदुर क्षितिज में बिजली का कौंधना देखकर हमें बादलों के अस्तित्व का बोध हो जाता है। इसी प्रकार अन्त:करण में करुणा का प्रवाह देखकर हम जान पाते हैं कि अमुक व्यक्ति में सत्य की जिज्ञासा है। उसे सत्य का कुछ साक्षात् हुआ है और उसका दृष्टिकोण समीचीन है। क्रूरता का विसर्जन किए बिना कोई भी आदमी सत्य की दिशा में गतिशील नहीं हो सकता। इस अनुभूति की तीव्रता के द्वारा मनुष्य में करुणा का संस्कार सुदृढ़ हो जाता है।
आचार्य की अभ्यर्थना है, 'प्रभो ! दुःख पाने वाले प्राणियों के प्रति मेरे मन में करुणा की भावना जागे।' आदमी में क्रूरता होती है निर्दयता होती है। उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति की भावना नहीं रहती। मुझे आश्चर्य होता है जब मैं देखता हूं कि आदमी धार्मिक भी है और क्रूर भी है। धार्मिकता और क्रूरता दोनों साथ-साथ नहीं चल सकतीं। अनेक धार्मिक कहलाने वाले को इतना क्रूर देखा है कि उनको धार्मिक कहने में हिचक होती है। वह छोटों के साथ क्रूर व्यवहार करने में ही अपना बड़प्पन मानते हैं। नैतिकता का आधार-करुणा
नैतिकता का आधार है-करुणा। हमारी दो वृत्तियां हैं-एक है क्रूरता की वृत्ति और दूसरी है करुणा की वृत्ति। करुणा का सम्बन्ध है संवेदनशीलत से। मनुष्य जितना संवेदनशील होता है, उतनी करुणा उसमें जागती जाती है। मनुष्य जितना असंवेदनशील होता है, उतनी ही क्रूरता बढ़ती जाती है।
मेरे सामने एक प्रश्न आया कि क्या ध्यान के अभ्यास के द्वारा पुलिसकर्मियों को पराक्रमहीन एवं शौर्यहीन बनाना चाहते हैं ? मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैं पूछना चाहता हूं, क्या शौर्य और क्रूरता एक ही है ? नहीं दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। शौर्य भिन्न वस्तु है और क्रूरता भिन्न वस्तु है। रात और दिन में जितना अन्तर है उससे भी अधिक अन्तर है क्रूरता और शौर्य में। शौर्य पराक्रम है। उसे न्यून करने की बात ही प्राप्त नहीं होती। पराक्रम को बढ़ाया जा सकता है। उसका विकास किया जा सकता है। उसका विकास वांछनीय है। क्रूरता अमानवीय दृष्टिकोण है, राक्षसी कार्य है। उसे कम करना जरूरी है।
विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां परपीडनाय । खलस्य साधो: विपरीतमेतत्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
विद्या विवाद के लिए, धन अहंतुष्टि के लिए और शक्ति दूसरों को पीडित करने के लिए ये तीन बातें हैं। दुष्ट व्यक्ति के लिए ही तीनों प्राप्त हैं
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