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प्रमोद भावना
प्रमोद का अर्थ है - प्रसन्नता । जो स्वयं में प्रसन्न नहीं होता, प्रमोद भावन को समझना उसके लिए कठिन होता है। जो अपना मित्र बनता है, वही प्रमोद - प्रसन्न रह सकता है। जिसकी अपने में प्रसन्नता है उसकी सर्वत्र प्रसन्नता है । वह अप्रसन्नता को देखता नहीं। अपने से जो राजी नहीं है, वह दूसरों के दोष देखता है, दूसरों की प्रसन्नता/विशिष्टता से ईर्ष्या करता है। दूसरों के गुणों को देखकर व्यक्ति स्वयं को प्रमोद भावना के द्वारा कितना ही भावित करे, किन्तु ईर्ष्या की ग्रंथि खुलनी कठिन है, भले ही कुछ देर के लिए मन को तृप्त कर ले। जिसे ईर्ष्या से मुक्त होना है उसे सतत प्रसन्नता का जीवन जीना चाहिए। यह कोई असम्भव नहीं है । जो कुछ प्राप्त है, उसमें सदा प्रसन्न रहे । अतृप्ति को पास फटकने न दे। जैसे-जैसे हम अपने से राजी होते जाएंगे, कोई वासना नहीं रहेगी । तब सहज ही दूसरों की विशेषताएं या अविशेषताएं हमारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होंगी । विशेषताएं जहां प्रसन्नता के लिए होंगी वहां अविशेषताएं करुणा उत्पन्न करेंगी। जैसे एक व्यक्ति विकास के चरम पद को पा सकता है, वैसे दूसरा भी पा सकता है, किन्तु वह अपने को गलत दिशा में नियोजित कर रहा है इसलिए करुणा का पात्र है । स्वयं में प्रसन्न रहना सीखें, फिर दूसरों से अप्रसन्नता भी नहीं आयेगी और दूसरों के गुणों के उत्कर्ष से अप्रसन्नता भी नहीं होगी ।
गुणों का मूल्यांकन
आचार्य ने अभ्यर्थना की- प्रभो ! गुणी मनुष्यों के प्रति मेरी प्रमोद भावना जागृत हो । जो मुझसे ज्यादा गुणवान् हैं, जो मुझसे ज्यादा क्षमतावान् हैं, उनके प्रति मन में प्रमोद जागे, ईर्ष्या की भावना न आए।
ईर्ष्या बहुत बड़ी बीमारी है । यह व्यापक रोग है । साधु-संत भी इससे अछूते नहीं हैं। जब एक साधु का यश बढ़ता है, महत्त्व और शोभा बढ़ती है । उस समय प्रमोद या हर्ष प्रदर्शित करना बहुत कठिन हो जाता है। दूसरे के मन में तत्काल यह भावना जागती है कि किन उपायों से इसके यश को और महत्त्व को धूलिसात् करूं । बहुत भयंकर रोग है ईर्ष्या का । इससे विरले ही बच पाते हैं । ईर्ष्या की चिकित्सा अध्यात्म से ही हो सकती है। जो सचमुच आध्यात्मिक रस में ओत प्रोत हैं वे गुणवान् व्यक्ति के प्रति प्रमोद प्रदर्शित कर अपने आत्मगुणों का जागरण करते हैं । गुणी के गुणों का निःस्वार्थ भाव से मूल्यांकन करना, दूसरों के समक्ष उन्हें अभिव्यक्ति देना,
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