SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कल । पक्ष स्वंगी सतभंगी सुखद सतगत संगी हेत । व्यंगी एकांगी कृते भंगी सो दुःख देत || इतर दर्शणी कर्षणी नय वणिज्य अनभिज्ञ । विज्ञ वणिर् जिन-दर्शणी नय दुर्णय विपणिज्ञ ॥ तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के गुणों का वर्णन कवि जयाचार्य उपमा के माध्यम से इन पंक्तियों में कर रहे हैं, द्रष्टव्य है अप्रतिबंध वायु जिसा, क्षमावान गुणखांन । १८ शीतल अमृत सारिरणी, वारू वरसत वांन ॥ ८॥ जीवन की प्रत्येक वस्तु अमूल्य है । उसी को जानना जीवन का लक्ष्य । इसी दर्शन को मुनि मोहनलाल 'आमेट' इन पंक्तियों में स्पष्ट कर रहे हैं। उपमा अलंकार के माध्यम से -- सुख-दुखी भण्या - अणभण्या जड़-चेत की दी है गत र गत री परतीत बागां पड़ी धूल मंजल री बभूत है Jain Education International ७७ उपमा अलंकार का एक उदाहरण श्रीमज्जयाचार्य जी की रचना "कीर्तिगाथा" से उद्धृत है, जिसमें वे भारीमल जी के हृदय की पवित्रता को चन्द्रमा के समान बता रहे हैं निर अहंकारी मुनि हिये निर्मला, शील सिणगार सुगंध । सत्यवादी मुनि वचने शूरमा, चित्र जिम शीतल चंद ॥ २० संन्यस्त में भी आत्मीयता संचरित होती है - इस अनुभव की अभिव्यक्ति आचार्य तुलसी ने इन पंक्तियों में की है । मघवागणि की मृत्यु के अवसर पर कालूगणि की मनःस्थिति को कवि ने रूपक अलंकार के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्त किया है नेहलां री क्यारी रो म्हांरी रो के आधार ? सूक्यो सोतो जो इकलोतो सुनो सो संसार ॥४॥ आ इकतारी थांरी म्हांरी सारी ही विसार कठै क्यूं पधार्या म्हारी हृत्तंत्री रा तार ? ॥३॥" ऐसा ही रूपक का विधान कवि ने माणक गणि की दीक्षा के उपरान्त " नियम-निलय" पद द्वारा किया है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy