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________________ ७८ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान बालक वय में, संयमलय में, नियम निलय में लीन । जय पय में जिम साकर पय में, आत्म विजय में पीन ।।२२ जयाचार्य के काव्य में तो जगह-जगह पर रूपक अलंकार के स्वाभाविक प्रयोग देखने को मिलते हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) समकित तरु भणी, संवेग जल' सींचंत । खम दम सम गुण खेतसी, दिढधर्मी दीपंत ।।२।। (ख) सिव रस कूपिक ग्रहण कू, संवेग रूपी तेल । समकित चराक सींचता, खेतसी जी घर खेल ।।४।। (ग) चरण करण गुण धरण चित, "वरण अमर वधु सार । मद अध हरण सुसरण मुनि, तरण भवोदधि पार ॥४॥" सादृश्यमूलक अलंकारों में उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से कवि लोग प्रायः प्रकृति एवं हृदय की मार्मिक स्थिति का कथन करते हैं। तेरापंथ के आचार्यों ने भी इस उद्देश्य से उत्प्रेक्षा का प्रयोग अपनी काव्य रचनाओं में किया है। जोधपुर में चातुर्मास के समय कालगणी का संवाद आचार्य तुलसी को कितना प्रिय लग रहा है, उसी की अभिव्यक्ति आचार्य तुलसी ने उत्प्रेक्षा के माध्यम से इन पंक्तियों में की है-- "वर पूज्य वचोऽमृत पान स्यूं, मानो गत-चेतन-तन चेतनताई आई रे। सहज्या कर टालो टालो करां, शासण-रंग-सुरंगे रग रग खूब रचाई रे ॥२॥ ऐसी ही उत्प्रेक्षा कवि ने जयाचार्य जी के व्यक्तित्व स्थापन हेतु "माणक-महिमा' में की है-- ''आकृति में आकर्षण, मानो अमृत-वर्षण वाणी । षट् दर्शन-दिग्दर्शन में, मेधा मेधावी जांणी । आगम मंथन में अगम्य प्रतिभा-परिचय परखावै ॥२५ सतजुगी चरित्र खेतसी की बहनों के ससुराल पक्ष के प्रति श्रद्धावनत हो जयाचार्यजी की उत्प्रेक्षा द्रष्टव्य है रावलियां ब्याही बिहुं रंग सू, सैणी महा सुख दाय । साल रूंख परिवार सुसाल नो, अधिक मिल्यो जोग आय ॥२६ अलंकारों के इन सुंदर एवं भावोत्कर्षक प्रयोगों के अतिरिक्त तेरापंथी विभिन्न काव्य रचनाओं में निम्नलिखित अलंकारों के भी यथाप्रसंग सफल प्रयोग मिलते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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