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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
चरचा वादी चातुर घणा, संत सत्यां सुख दान ।
सुमता रस नो सागरू, महिमावंत मुनि राय ॥१३।।११ (ख) मिल्या श्रमण सब समय में, विध विध करै विचार।।
अजब अनोखो ओ मिल्यो, मोको अपणे द्वार ॥२
वयण सगाई अलंकार के इन प्रयोगों के साथ ही अनुप्रास अलंकारों का भी बड़ा सुन्दर प्रयोग तेरापंथी काव्य रचनाओं में बहुलता के साथ देखा जा सकता है। चूंकि यह साहित्य आचार्यों की साहित्यिक प्रतिभा की अपेक्षा सम्प्रदाय विशेष की भक्तिभावना के प्रति प्रतिबद्ध है, अतः लोक रुचि एवं सहज-ग्राह्यता के लिए इन कवि आचार्यों ने तुक को अधिक प्रधानता दी है। इसी प्रवृत्ति के कारण प्रायः सभी रचनाओं में स्थान-स्थान पर अनुप्रास की छटा-दर्शनीय बन गई है। यह छटा श्रोताओं और पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में पूर्ण सक्षम है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है
(क) सरवर सुधारस सारसी, वाणी सरस विशाली हो। शीतल चंद सुहावणो, निर्मल विमल गुण हाली हो ।
__ अमीचंद अघ टाली हो ।।" (ख) मुनिवर रे वास वेला बहुला किया रे,
तेला चोला तंत सार हो लाल । पांच आठ तप आदर्यो रे, आणी हरष अपार हो लाल ॥४ तब घरका "खींवारा" थी सारो,
हेम विहार कियो तिण वारो ॥१४॥१५ संत पैंतीस सं सखर, विहार करी तिण बार। सुजानगढ़ आया सही, शांति संग जय सार ॥४१॥ प्रात वखांण समय पवर, च्यार तीर्थ रा घाट ।
सह सुणतां ऋष शांति नै, जीत कहै सुध वाट ॥५४॥१६ (ग) हाकम स्यूं हताश हो हाल्पा, संजम सहज गमावै रे ।।
कल्पवृक्ष संकल्प पूरणो, क्यूं रति-हीण रखावै रे ।।। काम दुधा सुरभी करभी, घर क्यूं कर कहो टिकावै रे।
मणि चिंतामणि मूढ़ शिरोमणि कर गहि काग बड़ावै रे ॥
शब्दालंकारों के साथ ही तेरापंथी काव्य के कलापक्ष को अर्थालंकारों खास करके सादृश्यमूलक अलंकारों के सहज प्रयोग ने भी सौष्ठव प्रदान किया है। "काल यशोविलास'' में कवि तुलसी ने “स्याद्वाद' जैसी गंभीर सैद्धान्तिक धारणा को उपमा अलंकार के माध्यम से इन पंक्तियों में स्पष्ट किया है
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