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अलंकार
रस काव्य - शरीर की आत्मा है तो अलंकार काव्य- शरीर शोभासंवर्द्धक बाह्यविभूषण । अलंकार-रहिता सरस्वती विधवा-नारी की तरह सुशोभित नहीं होती है । सुदर्शन चरित्र में अनेक सुन्दर अलंकारों का रुसन्निवेश हुआ है । उपमा और उत्प्रेक्षा की प्रधानता है, अन्य अलंकार भी विनियुक्त हुए हैं
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भरतक्षेत्र अंगदेश में रे लाल इंद्रपूरी सम जाण रे । यहां पर भरतक्षेत्र की उपमा इंद्रपुरी से दी गई है । 'रूपे रम्भा सारखी " - अभया रानी की उपमा रम्भा अप्सरा से दी शारीरिक संगठन एवं रूप-सौन्दर्य
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गई है । जिस प्रकार रम्भा अप्सरा के उत्कृष्ट थे उसी प्रकार अभया रानी थी
।
१६ वें ढाल में शीलव्रत के लिए अनेक उपमाओं का प्रयोग किया
गया है—
तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
ग्रह नक्षत्र तारा नां वृंद में घणो सोभे मोटो जिमचन्द | रत्न मैं वैडूर्यं मोटको फूलां में हो मोटो फूल अरविंद ॥ ज्यं व्रतां में शीलव्रत बडो ||
अर्थात् जैसे ग्रह, नक्षत्र एवं ताराओं के समूह में चन्द्रमा, रत्नों में वैडूर्य तथा फूलों में अरविन्द श्रेष्ठ है उसी प्रकार व्रतों में शीलव्रत बड़ा है ।
दृष्टान्त-----
वजन का हो धायजी हरिश्चंद्र बडवीर ।
भरियो डुम घर नीर, नीच तणी सेवा करो जी ॥
व्यतिरेक १४.४- ५१ काव्यलिंग २ दुहा ७, रूपक १.८, ६.३-४ आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग हुआ है ।
भाषा-शैली---
निसर्ग - रमणीयता एवं स्वच्छन्द - प्रवहणीयता से युक्त राजस्थानी भाषा में विवेच्य काव्य की विरचना हुई है । संस्कृत का लालित्य, प्राकृत की सहजता एवं हिन्दी की श्रुतिमधुरता के संगम पर राजस्थानी भाषा का प्रासाद अवस्थित है | राजस्थानी भाषा में विरचित होने के कारण उसके सम्पूर्ण गुण – सरलता, चारुता, सहज - सम्प्रेषणीयता एवं नैसर्गिकता आदि विवेच्य काव्य में अनुस्यूत हैं । शब्दों की श्रवण-सुखद संघटना, वैदर्भी का सहज लास्य, अलंकारों का चारुसन्निवेश, सुन्दर - पदों का उचित विन्यास और भावों की सहज अभिव्यक्ति की विद्यमानता के कारण सुदर्शन चरित्र की भाषा उत्कृष्ट बन गई । साधु-सूक्तियों एवं लौकिक न्याय - मूलक मुहावरों के
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