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राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा और आ० तुलसीकृत चरित काव्य ६१ चारों चरित काव्यों का राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा में विशिष्ट स्थान है। इनसे न केवल राजस्थान की तत्कालीन समाज व्यवस्था, सांस्कृतिक व साहित्यिक परिवेश पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, बल्कि तेरापंथ धर्मसंघ की राजस्थानी साहित्य की देन को समझने व स्वीकारने में भी मदद मिलती है । इस चरित काव्य-परम्परा का अगर अलग शोध प्रबन्ध के माध्यम से तुलनात्मक, विश्लेषणात्क एवं विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तभी इनके साथ न्याय हो सकेगा। संदर्भ १. डॉ. देव कोठारी-राजस्थानी साहित्य (अ. शो. प्र.) पृ० ७७ २. वही, पृ० ६८ ३. प्रो. मंजुलाल, र. मजूमदार-गुजराती साहित्य ना स्वरूपो, पृ. ८०-८१ ४. अगरचन्द नाहटा--प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा पृ. १६
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