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आचार्य भिक्षुकृत सुदर्शन चरित का काव्य सौंदर्य
[] डा० हरिशंकर पाण्डेय
अनुभूति की सहज एवं रसमय अभिव्यक्ति काव्य है । इसकी स्फुरणा में शक्ति, निपुणता और अभ्यास का समन्वित योग होता है' या अभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रयत्न अपेक्षित हैं- 'समाधिरान्तरप्रयत्न बाह्यस्त्वभ्यासः तौ उभौ अपि शक्तिमुद्भासयत : ' । २ कवि लोकशास्त्र से संग्रहित अनुभवों को अपेक्षित चर्वणीयता एवं अभिव्यंजना शैली से आवेष्टित कर काव्य का सृजन करता है, जो क्षण-क्षण नवीनता से युक्त, विधाता की सृष्टि से विलक्षण एवं केवलाह्लादवृत्ति सम्पन्न होता है ।" जो समाज में अधिक प्रभावक होता है । मम्मट ने इसे कान्ता सम्मित- उपदेश कहा है जो शेष दो उपदेश पद्धतियों (प्रभुसम्मित और मित्रसम्मित) से श्रेष्ठ एवं समर्थ होता है । इसी कारण आचार्य, समाज-सुधारक, सम्प्रदाय प्रवर्तक उत्कृष्ट जीवनदर्शन, आचारसंहिता और आत्म-मीमांसा जैसे गूढ़ विषयों को आस्तिक जनता तक पहुंचाने अथवा विश्वमंगल की भावना से अभिभूत होकर इस पद्धति का आश्रयण करते हैं ।
आचार्य प्रवर भिक्षु एक सशक्त, श्रेष्ठ और रत्नत्रयनिष्ठ श्रमण तो थे ही साथ ही शेमुषी - प्रतिभा सम्पन्न एवं चिदम्बरीय कल्पना - निष्णात एक कवि भी थे । 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू' का सार्थक संविधान उनके व्यक्तित्व में पूर्णतया संगठित होता दिखाई पड़ता है । मरुधर की पवित्र माटी में जनमे, मीरा, रसखान आदि अनेक श्रेष्ठ एवं वरेण्य कवियों की परंपरा में अग्रगण्य आचार्य भिक्षु ने 'गाम - गहेलरी' के समान निसर्ग रमणीया राजस्थानी भाषा के रूच्य-रूप- लावण्य पर मुग्ध होकर इसी के माध्यम से वाणी का विस्तार दिया । आस्तिक जनता के समक्ष सदा उपचित होने वाली अमृत रस तरंगिनी प्रस्तुत की । इस महाकवि ने अनेक काव्यविधाओं का सृजन किया है । सुदर्शन चरित' एक उत्कृष्ट काव्य गुणों से समन्वित, शील- निरूपण - प्रधान एक श्रेष्ठ महाकाव्य है, जिसमें से कुलभूषण- सुदर्शन के चरित्र का वर्णन किया गया है । रसमयता, नैसगिकता, चरित्र - शील की प्रतिष्ठा अलंकारों का उचित सन्निवेश आदि के कारण इसे चरित्रकाव्य भी कहा जा सकता है ।
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