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अपनी बात
"धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई"
समाज में जब प्रदूषण प्रचंड होने लगता है तब उसके विरुद्ध धर्म - क्रांति के लिए भूमिका तैयार होती है और ऐसे ही अवसर पर किसी महापुरुष का आविर्भाव होता है संभवामि युगे युगे । धर्म का कर्मकांड और बाह्य कलेवर जब प्रधान हो जाता है तथा धर्म का हृदय एवं उसकी आत्मा के तत्त्व गौण हो जाते हैं तो फिर या तो धर्म-विनाश होता है या धर्मक्रांति । तेरापंथ जैन धर्म एवं संस्कृति में एक धर्मक्रांति है । अतः भाषा एवं साहित्य में इसका प्रभाव अवश्यम्भावी है ।
तेरापंथ के सभी आचार्यों एवं प्रायः इसके सभी संतों एवं साध्वियों की साहित्य - साधना का माध्यम राजस्थानी भाषा ही रही है । तेरापंथपरम्परा ने इतनी कम उम्र में जितना सारस्वत कार्य किया है, वह देखकर आश्चर्य होता है। चाहे चरित्र - लेखन हो या इतिहास, धर्म हो या दर्शन, स्तुति हों या ढालें, व्याकरण हो या ज्योतिष - शायद वाङ् मय की सभी विधाओं में तेरापंथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
प्रथम आचार्य भीखणजी का वाङ्मय साधना का साहित्य है । दर्शनके गूढ़ तत्त्व कबीर की तरह उन्होंने लोकभाषा में नरचा होता तो शायद उसका लाभ नहीं मिलता - " भाषा निबद्धमति मंजुलमातनोति ।" फिर जयाचार्य ने न केवल पुस्तकों का सांधिकीकरण किया बल्कि लिपि सुधार कर मुद्रांकन भी प्रारम्भ कराया । अन्य आचार्यों एवं साधु-साध्वियों ने राजस्थानी साहित्य का संबर्धन किया । इन सबों का भव्य रूप हम आचार्य तुलसी एवं युवाचार्य की रचनाओं में देखते हैं । इन दोनों को तो मैं जैनागम का विश्वकर्मा एवं जैन वाङ् मय की गंगोत्री का भगीरथ मानता हूँ ।
मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि इस शिशु विश्वविद्यालय ने राजस्थान की साहित्यिक विरासत के ऋण को चुकाने का विनम्र प्रयास किया है । यह हमारा पूर्णविराम नहीं, प्रथम चरण है ।
आचार्यश्री तुलसी ने प्रेरणा दी और डा० देव कोठारी एवं डा० किरण नाहटा ने न केवल योजना दी बल्कि संगीति का निर्देशन भी किया । उन्हें हम भूल नहीं सकते ।
विश्वविद्याल के प्राकृत विभाग ने सब कुछ किया और विश्वविद्यालय
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