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पाथेय
शब्द और अर्थ-दोनों में भेदाभेद संबंध है । दूध यदि घी से सर्वास्मना अभिन्न होता तो मंथन या बिलौना अनावश्यक होता । दूध और घी यदि सर्वथा भिन्न होते तो घी के लिए दूध को जमाना और दही को मथना जरूरी नहीं होता। दोनों में सापेक्ष अभेद है इसलिए दूध से घी की आशा की जाती है और दोनों में सापेक्ष भेद है इसलिए मंथन होता है, दूध से नवनीत अलग हो जाता है।
अर्थ शून्य शब्द और शब्द शून्य अर्थ---दोनों अपने आपमें जटिल होते हैं। दोनों की जटिलता को कम करने के लिए भाषा का विकास किया गया। वह भाषा समर्थ होती है, जिसकी शब्द-शक्ति अर्थ का संग्रह और उसकी अभिव्यक्ति में सक्षम होती है। कानून की शब्दावलि में राजस्थानी भाषा नहीं है, मात्र बोली है, किन्तु क्षमता की दृष्टि से वह एक समर्थ भाषा है। उसकी शब्द-संहिता अर्थ के नियोजन और अभिव्यंजना में बहुत सक्षम है।
तेरापंथ का उद्भव राजस्थान में हुआ । उसका मुख्य विहार क्षेत्र भी राजस्थान रहा इसलिए उसने राजस्थानी का प्रचुर उपयोग किया और उसकी साहित्यिक समृद्धि गौरवपूर्ण बन गई। आचार्य भिक्षु, जयाचार्य और आचार्य तुलसी-इन तीनों महान् आचार्यों की विशाल रचनाएं राजस्थानी के भण्डार की महाऱ्या मणिमुक्ता हैं। साधु-साध्वियों तथा गृहस्थ श्रावकों ने भी पर्याप्त मात्रा में लिखा । जैन आगम प्राकृत में हैं । राजस्थानी का प्राकृत से घनिष्ठ संबंध है इसलिए सैकड़ों-सैकड़ों प्राकृत के शब्दों का राजस्थानी में प्रयोग हुआ है।
जैन विश्व भारती संस्थान, मान्य विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय संगोष्ठी (१८-२० अक्टूबर ९२) में उस विशाल साहित्य पर कुछ साहित्यकारों ने चञ्चुपात किया है। यह चञ्चुपात उस समृद्ध साहित्य के मूल्यांकन का साधन बन सके, यह विश्वास निरालंब नहीं है ।
३१.१०. ९३ नाहर भवन, राजलदेसर
युवाचार्य महाप्रज्ञ
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