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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
शत्रुन को उर आण, शत्रु को शत्रु न माने ।
मित्रन को उर आण, मित्र को मित्र न माने । यहां 'उर आण' और 'न माने' की वैचारिक दृष्टि ग्रहणीय है। भेदों और अभेदों दोनों को भली प्रकार समझना तो है, किन्तु उनके कारण लक्ष्यभ्रष्ट होना, एकत्व को भूल जाना ठीक नहीं। राग-द्वेष दोनों से परे होकर तादात्म्य की अनुभूति करना ही श्रेयस्कर है ।
द्वितीय, तत्त्व-निरूपण और पथ-प्रदर्शन के साथ सभंग श्लेष के अनेक सुन्दर उदाहरणों से युक्त कविवर किशनजी का एक पद यहां द्रष्टव्य
ईहे प्रभुताकुं जो 'किसन' प्रभुताकुं त्यागी,
छरि ना बिभूति तो बिभूति का धारी है ? जो लौं भगतजी नांह तो लौं भगतं जीनांह,
काहे को गुसांईं जो गुसांईं सूं न यारी है ? काहे को विराहमन जा को न बिराह मन, ____कहा पीर जो पै पर-पीर ना बिचारी है ? काको वह जोगी जन, जाको नहीं जोगी मन,
आसन ही मार जान्यो, आस नहीं मारी है ? इसमें आठ शब्दों में सभंग श्लेष के द्वारा अर्थ का गौरव और अभिव्यंजना का चमत्कार उत्पन्न किया गया है। कवि आत्म-संयम का परामर्श दे रहा है, जो इन आठ श्लिष्ट शब्दों को समझ लेने पर स्पष्ट हो जाता है। श्लिष्ट अर्थ देखिये-- १. प्रभुताकुं - (i) प्रभु ताकुं-प्रभु उसको, (ii) प्रभुता कुं-प्रभुता को २. बिभूति -() विभूति, धन सम्पत्ति, (ii) विभूति, राख, शरीर
पर भस्म लेपन ३. भगतजी--(i) भग तजी, विषय- (ii) भगतजी, भक्तजी।
वासना त्यागी, ४. गुसाई-(i) गु साई, इन्द्रियों का (ii) गुसा ई', गुस्सा, क्रोध स्वामी,
ही। ५. बिराहमन–(i) बिराहमन, ब्राह्मण, (ii) बिराह मन, विशेष राह,
उत्तम पथ अर्थात् मोक्ष
मार्ग में जिसका मन है । ६. परपीर-(i) पीर, संत,
(ii) पर-पीर, दूसरे की
पीड़ा। ७. जोगी-(i) जोगी, योगी,
(ii) जोगी, परमात्मा से संयुक्त योग-निष्णात
होने वाला।
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