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राजस्थानी शब्द - सम्पदा को तेरापंथ का योगदान
'संकल्प रो बल' में अनमन विनय । कूप - भेकता । तृणजीवी जीवन । पंचेन्द्रिय प्राणी | मच्छ गलागल । विभुता और विभूति । शान्त सुधारस । सुपथ - समन्वय ।
(५) राजस्थानी मुहावरों और लोकोक्तियों का तत्त्वदर्शन के स्पष्टीकरण में उपयोग; यथा-
मुहावरे-
कमनीय रूप में प्रस्तुत करता है, तुलसी ने इसका प्रयोग किया है ।
कहावतें -
है ।
१. चासनी चाखना --- स्थिति का जायजा लेना ।
इसमें प्रतीक - योजना का सौंदर्य स्पष्ट झलकता है ।
२. बांसां उछलना--सीमातीत हर्ष होना । यह मुहावरा बिम्ब को विशेषतः उस सन्दर्भ में जहां आचार्यश्री
१. आंधो बांटे जेवड़ी, लार पाडो खाय ।
इस कहावत का प्रयोग जीवन की विसंगतियों को ध्वनित करता
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२. बार कोसां बोली पलटे, फल पलटै पाकां ।
जरा आया केस पलटे, लक्खण नहीं पलट लाखां ॥
लाख प्रयत्न करने पर भी स्वभाव नहीं बदलता । यह कहावत अनेक संगतियों के प्रदर्शन के मध्य में एक असंगति पर विशेष प्रकाश डालकर कथ्य के प्रभाव का संवर्धन करती है ।
तेरापंथी काव्य में, इस प्रकार, जो के दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करता हूँ ।
कथन -
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उत्कृष्टता आई है, उस अर्थ - गौरव प्रथम, पूज्य कालूगणी जी का
तीन बात हैं बैर की जर जोरू जमीन | स्वरूपदास तिहुं ते अधिक मत की बात महीन ||
अर्थ- गौरव- - मत या सम्प्रदाय के लिए जो झगड़े होते हैं, जो आक्षेपपरिवाद आदि होते हैं, उनसे जो उलझनें पैदा होती हैं, वे धन, स्त्री और भूमि के लिए होने वालों की अपेक्षा कहीं अधिक विनाशकारी बन जाते हैं । मत-भेद विचार-भेद तक ही रहे, तो बात सम्हल सकती है, किन्तु जब मतभेद को मन-भेद तक बढ़ा दिया जाता है. मनों में दरार पैदा कर ली जाती है, तो वह अत्यन्त अनिष्टकारी हो जाती है । विचार-भेद को जानना - समझना तो ठीक है, उनमें उलझना, उनसे व्यामोहग्रस्त होना उचित नहीं है । अतः भेद में से भी अभेद के तत्त्वों की ही खोज करनी चाहिए। एक नीतिकार कवि ने राजा की नीति के विषय में कहा है :
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