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________________ राजस्थानी शब्द-सम्पदा को तेरापंथ का योगदान ८. आसन ही-(i) आसन ही, (ii) आस नहीं, आशा, सांसायोगासन-मात्र रिक कामना नहीं। मारना--(i) आसन लगाना (ii) मारी-त्यागी, दमित की। जैसे भगवान श्रीराम अभिराम हैं, उनका रम्यत्व हृदयाकर्षक है, क्योंकि बे युगपत् सौन्दर्य, शील और शक्ति के निधान हैं । शक्ति अर्थात् सत्यसंस्थापन सामर्थ्य । उसी प्रकार, भाषा की रम्यता, उसकी मभिरामता, उसकी उत्तमता, चारुता भी उसके सौन्दर्य, शील और शक्ति की निधि होने में है। 'कान्तासम्मिततयोपदेश युजे' में कविता के विषय में तथा उसके सन्निकर्ष से भाषा के विषय में यही कहा गया है कि सत्य-सौन्दर्य-शीलवती होने में ही उसकी इयत्ता है, गरिमा है। 'सम्मिततया युजे' उपदेश, शिवं का, और 'कान्ता' शब्द-सौन्दर्य की वाचकता को ध्वनित करता है। इनमें भाषा और कविता के लिए सौन्दर्य की प्राथमिकता है, किन्तु सत्यं उसका हार्द और शिव उसका परिफलन है। सन्तों की भाषा में सत्यं और शिवं की प्रधानता रहती है, सौन्दर्य तत्व प्रायः निगूढ़ रूप से व्याप्त रहता है। किन्तु तेरापंथ के सन्तों और आचार्यों की-----विशेषतः आचार्य भिक्षुजी, जयाचार्यजी और आचार्य तुलसीजी की-भाषा और कविता सौन्दर्य को सत्यं और शिवं से कम नहीं आंकती। भाषा का सौन्दर्य भावों की हृदयग्राही अभिव्यक्ति और उसके मनोरम संप्रेषण में है, भाषा का शील उसकी एकत्वकारिणी, समन्वयकारिणी और तादात्म्यकारिणी क्रिया-परकता में है, और भाषा की शक्ति उसके सत्यसंस्थापन-सामर्थ्य में है। आगम मत के अनुसार कहें तो भाषा की क्रमशः इच्छा, क्रिया और ज्ञान शक्तियां हैं। तेरापंथी कवियों की भाषा में ये तीनों शक्तियां हैं, विशेषतः तीनों आचार्यों की भाषा में प्रभूत मात्रा में विद्यमान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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