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राजस्थानी शब्द-सम्पदा को तेरापंथ का योगदान
था। भाषा-समक में दो भाषाओं के शब्द या साथ-साथ क्रमशः रख कर कविता बनती है। यह चमत्कारिता पाठकों को आकर्षित करती है, और विभिन्न भाषा-भाषियों को विचारणा में निकट लाती है । सन्त जन भी समाज में वैचारिक समता स्थापित करने में प्रयत्नशील रहते हैं। इसी दृष्टि से तेरापंथी काव्य में भी यत्किचित् भाषा-समक का प्रयोग हुला। ऐसा अधिकतर दो भाषाओं के शब्दों के समास बनाने में हुआ है। द्विभाषिक समासों के तथा शब्द-रचना के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :हिन्दी (राजस्थानी)-अंग्रेजी
_ 'आदत री लाचारी' में--मांस-मार्केट । हिन्दी (राजस्थानी)-उर्दूअकड़ता (भावे 'ता')
तरास्योड़ी (ओड़ो, क्तान्त) अन्तरदिल
दारूखोर आदत-परिवर्तन
परदरद ओछी-उमर
पुण्य निशानी कामना-सैत
बदकर्मी कृत-करज
बिरथा वैम खातरी-भगती
राज-मैलां गाफिलता (भावे 'ता')
लाज-शरम चाडीखोर
शाल-इशारै चुगलचिड़ी
सनूर चो निज- (चार नजरें)
समदीठ च्यारू तरफी
हरबूंद छल-छेकी
हिम्मत-हारिणी जबां जयणा (बोलने की सजगता) हिम्मत-हारू ।
(४) वाक्यांशों (फ्रजेज) का विशेष संघटन; यथा
भावों का स्वयंवर । मान्यता का अभिनिवेश (गलत मान्यता), अभय की तरंगें । संकल्प की नौका । दृष्टि का विपर्यास । आदि ।
- कविजन सहजतः ही मार्मिक लघु वाक्यांशों की रचना करते हैं । ये प्रभावशाली, सुन्दर वाक्यांश जन-जन के मन में बस जाते हैं, उनकी जिह्वा पर चढ़ जाते हैं, और भाषा के स्थायी अंग बन जाते हैं। फिर ये भाषा के स्थायित्व तथा प्रचार-प्रसार का कारण बनते हैं। यहां हम दो तेरापंथी कवियों--मुनि मोहनलाल आमेट और आचार्य तुलसी के काव्य से कुछ वाक्यांश प्रस्तुत कर रहे हैं ।
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