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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
भिक्षु स्वामी के स्वर्गारोहण दिवस भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को होने वाले महोत्सव' के अर्थ में, 'श्राव' 'धर्मशाला' अर्थ में, 'श्रावक' 'आस्थाशील व्रतचारी के अर्थ में, 'फूल घाणना' को 'अस्थि-विसर्जन' के अर्थ में लिया गया
___ यह प्रक्रिया अर्थागम (नये अर्थ का समावेशन), अर्थ-विस्तार और अर्थ-संकोच के माध्यम से प्रायः होती है। इनके उदाहरण तेरापंथी काव्य में भरे पड़े हैं । यहां एक-एक, दो-दो उदाहरण दे रहा हूं । अर्थागम
भाषा-समिति-दोष-रहित भाषा का प्रयोग । ओसर-मोसर-मृत्यु-भोज ।
फूल- मृतक की अस्थियाँ । अर्थ-विस्तार
यह अर्थोत्कर्ष की प्रक्रिया है; यथा
भात-पाण-आहार-पानी, भोजन और पेय । अर्थ-संकोच
__ अर्थापकर्ष की इस प्रक्रिया के द्वारा सामान्य शब्द भी पारिभाषिक बनाये गय हैं । इस प्रकार बने शब्द जैन-दर्शन और तेरापंथी साहित्य में कई सहस्र हैं। उदाहरणार्थ : -- झाझाझोली-शारीरिक अक्षमता में साधु-साध्वी को स्थानान्तरित
__ करने का उपकरण । जोग-मुनि-धर्म की दीक्षा । गण-धर्मसंघ । नव बाड़-ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए निर्धारित नौ सूत्र । उपासरा--- मूत्तिपूजक सम्प्रदाय का धर्मस्थान ।
अट्ठाई-अष्टाह्निक पर्युषण पर्व का प्रथम दिन । अर्थापदेश (अर्थादेश)
अर्थापदेश अर्थ-विकार का एक भेद है। अर्थापदेश में अर्थ भिन्न हो जाता है। कभी-कभी अर्थ का अपकर्ष हो जाता है, और कभी-कभी किसी एक अर्थ में संकुचित भी हो जाता है । अर्थ के इस प्रकार के परिवर्तन से कविजन प्रायः काव्य की अभिव्यंजना-शक्ति में चार चाँद लगा देते हैं।
तेरापंथी काव्य में भाषा की अभिव्यंजना-शक्ति प्रायः पर्याप्त उदात्त हो जाती है । उसका उत्कर्ष 'अर्थापदेश' के रूप में प्रकट होता है। यहां दो कवियों के काव्य में से कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।
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