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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
आचार्य तुलसी
आचार्य परम्परा में जयाचार्य के बाद मघवागणी और माणकगणी ने काव्य के क्षेत्र में चरण रखे, किन्तु वह चरण केवल पूर्वाचार्यों के जीवन प्रसंग, लेखन और कुछ ढालों चौपाइयों तक आकर ही विराम को प्राप्त हो गया। उसके अनन्तर उस साहित्य-साधना को उज्जीवित किया युग प्रधान आचार्य तुलसी ने। आपने राजस्थानी भाषा में जिस सहजता से भावों को अभिव्यक्ति दी है, घटनाओं को चित्रित किया है मानों अतीत स्वयं वर्तमान बनकर पाठक की आँखों के सामने उतर आता है। केवल भाव प्रकाशन में ही कवि सिद्ध हस्त नहीं है बल्कि उचित शब्द-विन्यास ने काव्य को प्राणवत्ता दी है । आपके प्रमुख राजस्थानी काव्य ग्रन्थ हैं—कालूयशोविलास, माणक महिमा, डालिम चरित, मगन चरित, माँ वदना, नन्दन-निकुंज, सोमरस, चन्दन की चुटकी भली, सेवा भावी इत्यादि ।
___ कालूयशोविलास राजस्थानी भाषा का एक अद्वितीय काव्य है । २५ वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ की गई इस काव्य कृति में पूज्य कालगणी की जीवन गाथा काव्य वैशिष्ट्य के साथ प्रस्तुत हुई है । काव्य नायक के चरित्रांकन के साथ-साथ राजस्थान की भीषण गर्मी, आताप लू. मेवाड़-मारवाड़ की पथरीली, रेतीली और कंटीली भूमि का चित्रण बड़ा ही सजीव और प्रभावी बन पड़ा है। शांत रस के साथ करुण रस का उद्रेक अध्येताओं के मन और आँख दोनों को गीला कर देता है। केवल एक उदाहरण ही कवि की कवित्व शक्ति को व्यक्त करने में समर्थ है। जब मेवाड़ के लोग पूज्य कालगणी से मेवाड़ पधारने की प्रार्थना करते हैं उस समय कवि तुलसी ने मेवाड़ मेदिनी में विरहणी का आरोपण कर भक्तों को अन्तर्व्यथा को जिस मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है वह दर्शनीय है
पतित उद्धार पधायि संगै सबल ही ठाठ । मेद पाटनी मेदिनी जोवै खड़ी खड़ी बाट ।। सघन शिलोच्च नै मिषे रे, ऊँचा करि करिहाथ । चंचल दल शिखरी मषै, दे झाला जगनाथ ॥ नयणां विरह तुम्हार डै, झरै निझरणां जास । भ्रमरा-राव भ्रमै करी, लहै लांबा निःश्वास ॥ कोकिल कुजित ब्याज थी, तिराज उड़ावै काग । अरघट खट-खट का करि, दिल खटक दिखावै जाग ।। मैं अबला अचला रही, किम पहुँचै मम संदेश । इस झर झर मनुं झूरणां संकोच्यो तनु सुविशेष ।।
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