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तेरापंथ के प्रमुख राजस्थानी कवि
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में इतने अधिक आगमिक प्रमाण देते कि पाठक को लगता है मानो उसके सामने आगम ही है । यथा -- प्रथम गुणस्थानवर्ती जीवों की निरवद्यकरणी आज्ञा में है अथवा आज्ञा बाहिर ? इस प्रश्न को आगमिक आधार पर सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक-दो नहीं अठारह प्रमाण प्रस्तुत किए हैं ।
जयाचार्य एक भक्त कवि थे । अपने आराध्य के प्रति उनका समर्पण भाव जिस भाव प्रवणता और बेधकता के साथ प्रस्तुति पा सका है वह भक्ति - कालीन कवि सूर, तुलसी और मीरा से कम नहीं है । एक उदाहरण में ही हम उनकी भक्ति का दर्शन कर सकते हैं
गोप्यां रै मन कान्ह
पतिवरता समरै जिम पिउ नै तंबोली रा पान तणीं पर धरूं स्वाम सौ ध्यान ॥ आशा पूरण आप तणां मुण कह्या कठ लग जाय
सागर जल गागर किम मावै, किम आकाश मिणाय ||
आपकी भाषा राजस्थानी है । कहीं-कहीं गुजराती का भी मिश्रण
है । कविता प्रसाद गुण प्रधान है । आपने हर स्थिति का एक कुशल चित्रकार की भांति चित्रण कर उसे सजीवता प्रदान की है। चाहे श्रृंगार रस का प्रसंग हो अथवा शांत रस का । संत लेखनी ने बहुत संयत ढंग से बियोगिनी नायिका के चित्रण में श्रृंगार रस का प्रयोग किया है
हार नै कहै आज भी मणी दग्धकारी हुवै सोय । चंदा ने कहै कर चांदनी रै बालण लोग्यो मोय ।।
रस काव्य की आत्मा है तो अलंकार उसका परिधान । कवि ने अपने काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग किया है । उनके काव्य 'शांति विलास' में जिस ढंग से अनुप्रास का प्रयोग किया है उसकी छटा दर्शनीय हैं
समता खमता दमता जमता नमता वचन निहाल । तमता भ्रमता वमता तनमन मुनि शांति गुण माल ॥
कुशल मनोचिकित्सक, अनुवादक, नतहृदय और साधनारत साहित्यकार के रूप में उनका परिचय दे रहे हैं उनके द्वारा रचित साढ़े तीन लाख पद्य प्रमाण आगम भाष्य, तत्त्व दर्शन, आख्यान, स्तुति, साधना, न्याय, जीवनियाँ, व्याकरण, मर्यादा, उपदेश – इत्यादि वर्गों में वर्गीकृत उनकी रचनाएं राजस्थानी साहित्य की एक अनमोल थाती हैं । इतने महनीय कवि की रचनाओं से राजस्थानी भाषा के कवि और साहित्यकार अपरिचित रहते हैं तो वे कवि के प्रति तो न्याय नहीं करते हैं किन्तु उस भाषा के प्रति भी उनका न्याय नहीं होगा ।
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