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आचार्य भिक्ष की कृतियों का काव्यात्मक मूल्यांकन
१४१ इसी प्रसंग में आम्रमंजरी, कोयल की कूक, चकवा-चकवी के प्रेमालाप मादिका चित्रण भी बड़ा प्रभावोत्पादक है ।
लोकोक्तियों एवं किंवदंतियों के प्रयोग से उनके काव्य-रचना का सौष्ठव और भी बढ़ गया है। उदाहरण के रूप में कुछ अप्रचलित लोकोक्तियां
बाप तलाई जाण ने खावे गार गिवार । पूत रा पग जाणो पेट मांही।
अपने पूर्व कवियों की वाणियों का भी बड़ा हुबहू प्रयोग आचार्य भिक्षु ने अपने काव्य में किया है। कबीर की वाणी-''जो घर फूंको आपनाचलो हमारे संग" तथा आचार्य भिक्षु की वाणी--- "घर जलाय तीरथ जे करसी, सो साधु जाग मांहे तिरसी' में कितना अधिक साम्य है । ऐसा लगता है कि आकाशीय रिकॉर्ड में रही शब्द-तरंगों को विज्ञान किसी शताब्दी में पकड़ पाएगा अथवा नहीं, पर हमारे सन्त पुरुष ऐसा करने में बहुत सक्षम
आचार्य भिक्ष ने आगमों के विविध कथानकों को जहाँ राजस्थानी पद्यों में संगुंफित किया है, वहाँ बीच-बीच में क्रांति के स्फुलिंग भी उसमें जगमगाते हुए दृष्टिगत होते हैं। वीतभय नगरी के राजा केशी की निषेधाज्ञा के प्रतिपक्ष में कुंभकार का सत्याग्रही स्वर गूंजता है
हूं इण साध ने जायगां रहण देसू, म्हारो कांई करसी राजा रूठो । भांडा-बासण न सगला गधेड़ा पेहले छेहड़े लेसी लूटो ।। कदा जीवा मारे तो मरण कबूल छे, साधु तो ऊतारूं घर माही ।
__ -उदाई रो बखाण, ढाल ५१०,११ शकडाल पुत्र की पत्नी अग्निमित्रा अपने पति के धर्माराधना से विचलित होने पर कर्तव्यबोध के स्वरों में कहती है
तो थे मोंने बचावण उठ्या इण बेलां । वरतां साह्मो थे क्यूं नहीं जोयो । पोसा मांहे ममता किण री न करणी ।।
-----शकडालपुतर रो बखाण, ढाल १६।४,६ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि हम उन्हें समाज सुधारक के रूप में, सर्वधर्म समन्वयकारी के रूप में, सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में हिन्दु-मुस्लिम ऐक्य विधायक के रूप में देखते हैं, किन्तु उनका वास्तविक रूप भक्त का है। अन्य सभी रूपों को भक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया है। द्विवेदीजी की यह टिप्पणी
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