SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदर्शनचरित में सुदर्शन का चरित्र-चित्रण ११५ जीवन मूल्यों की पृष्ठभूमि पर अपने चारित्र का निर्माण करता पाया गया है । वह त्यागी वीर, कुलीन, सुन्दर, रूप तथा यौवन से सम्पन्न, कार्यों को करने में निपुण, जनसमुदाय को आकृष्ट करनेवाला, तेज, चतुर और शील आदि गुणों से युक्त पाया गया है । धार्मिक जीवन की सर्वोत्कृष्टता उसके जीवन में प्रस्फुटित हुई है । सुदर्शन - श्रावक - चम्पा नाम की नगरी में धात्रीवाहन राजा उस नगरी के अधिपति थे । उनकी पटरानी का नाम था अभया (अभिया) । उसी नगरी में ऋषभदास नामका बारहव्रतधारी श्रावक रहता था । उसकी जिनमती नाम की भार्या थी । वह भी श्राविका थी । उसने एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम सुदर्शन रखा । यथा नाम यथा गुण वाला था सुदर्शन । रूप और सौन्दर्य का भण्डार था 'रूप लक्षण गुण तेहनां भला रे व्यंजनादिक सर्व विशाल रे । " सभी के नेत्रो को प्रियकारी था । उसके अत्यन्त गुणवती मनोरमा नाम की भार्या थी । पिता के धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से वह भी बारहव्रती श्रावक बना । 'सेठ सुदर्शन श्रावक तणा रे बारे प्रत पाले रूडी रीत रे । देवादिक रो डिगायो डिगे नहीं रे, तिणरी लोकां में घणी प्रतीत रे ।' पत्नी ने भी बारह व्रत ग्रहण कर लिये । 'पाले श्रावक नां व्रत बार, पुन्न जोगे जोड़ी मिली ।" 11७ सुदर्शन रुप, मेधा एवं गुणों से आकीर्ण था 'हुवो बहोत्तर कलानों जाण रे । तिण में पिण सगला गुण छे विशाल रे ।" वह आचरण के साथ रूप से अनुपम था, उसके अद्भुत रूप ने मित्र - पत्नी कपिला रानी अभया एवं वैश्या को कामान्ध बना दिया, वे कामतृप्ति के लिए उससे प्रार्थना भी करती हैं । रूप देख विरहणी थई वांछे सुदर्शन सूं भोगी ।" 'राणी रूप देख मूच्छित हुई करवा लागी मन में विचार रे । एहवा पुरुष थकी सुख भोगवे, धिन धिन छ तेह नार रे । " पर श्रेष्ठी पुत्र सुदर्शन अपनी अविचल व्रत निष्ठा से उन्हें असफल कर देता है 'ते पर त्रिया मूल वांछे नहीं रे, तिणरा दृढ़ घणा परिणाम | ३ 93 दृढधर्मी, दृढव्रती सुदर्शन कामासक्ता बनी कपिला, अभया एवं वेश्या के द्वारा नानाविध प्रलोभित किया जाता है, वे अपकीर्ति की धमकी देती हैं, अपने को मरण शय्या तक भी ले जाती हैं पर ज्ञानी कहते हैं जो अपने बल, स्थाम, श्रद्धा, आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर उसके अनुसार आत्मा को धर्म-कर्म में नियोजित करता है, वह स्खलित या अनाचारी नहीं होता । " स्वामीजी ने सुदर्शन की शील निष्ठा का उल्लेख करते हुए ही कहा है 'पूर्व थकी पश्चिम दिशे, कदाच ऊगे भाण । तो पिण सेठजी शील थी न चले, जो जावे निज प्राण । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy