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आस्था सम्यक् बने
सत्य-अहिंसा और जीवन व्यवहार
सत्य और अहिंसा जीवन को संवारने वाले दो तत्व हैं । पर जाने क्यों, आज के मानव मस्तिष्क में यह मिथ्या आस्था घर कर गई है कि अहिंसा और सत्य से जीवन नहीं चल सकता । वास्तविकता तो यह है कि हिंसा और असत्य से जीवन का काम नहीं चल सकता। क्यों ? इसलिए कि ये दोनों आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, गुण नहीं हैं । आत्मा के गुण सत्य और अहिंसा हैं । अब समझने की बात यह है कि जब सत्य और अहिंसा आत्मा के मौलिक गुण हैं, आत्म-स्वभाव हैं, तब उनके आधार पर जीवन कैसे नहीं चलेगा ? मैं थोड़ा और विस्तार में जाना चाहता हूं। एक व्यक्ति यदि यह निर्णय कर ले कि मैं सत्य का सर्वथा वर्जन कर मात्र असत्य से अपना काम चलाऊंगा तो क्या आप यह कल्पना कर सकते हैं कि उसका काम चल सकेगा ? बहुत स्पष्ट है, कदापि नहीं चल सकेगा । यदि उससे पूछा जाएगा कि तुम कौन हो, तो क्या वह अपने आपको मनुष्य न बताकर पशु बताएगा ? और कदाचित् बताएगा भी तो उसके लिए कितनी हास्यास्पद बात होगी । तात्पर्य यह है कि असत्य के आधार पर जीवन-व्यवहार नहीं चल सकता ।
बात अहिंसा के लिए भी है । यदि कोई व्यक्ति सबके साथ हिंसक मनोवृत्ति से व्यवहार करे तो क्या कोई भी समझदार आदमी यह कल्पना कर सकता है कि उसका काम चल सकेगा ? एक दिन भी चल सके, यह संभव प्रतीत नहीं होता । अतः श्रेयस्कर यही है कि मनुष्य अपनी अवधारणा को सम्यक् बनाए | अपने दिमाग से इस मिथ्या अवधारणा को निकाल दे कि अहिंसा और सत्य का जीवन-क्रम में प्रयोग अव्यवहार्य है । हां, यह तो सम्भव है कि अहिंसा और सत्य पर चलने से व्यक्ति के सामने कुछ कठिनाइयां आएं, उसे सुख-सुविधाओं के साधन कुछ कम उपलब्ध हों, पर इसके समानान्तर यह भी सच है कि कठिनाइयों और सुख-सुविधाओं के साधनों की कमी के बावजूद भी उसको सहज शान्ति की अनुभूति होगी । वह शान्ति असत्य और
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महके अब मानव-मन
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