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जीवन को संवारें
भारतवर्ष ऋषि-मुनियों का देश है। यहां त्याग, तप और संयम की सर्वोच्च प्रतिष्ठा रही है। उसी जीवन को ऊंचा और श्रेष्ठ माना गया है, जो सच्चरित्र-युक्त हो, सत्यनिष्ठा, नीतिनिष्ठा, प्रामाणिकता से सम्पन्न हो । पर युग बदला और युग के बदलने के साथ ही जीवन के मूल्य-मानक बदल गए। आज सच्चरित्र, सत्यनिष्ठा, प्रामाणिकता आदि का स्थान अर्थ ने ले लिया है। इसी कारण व्यक्ति अर्थ के पीछे पागल-सा हो रहा है । उसकी प्राप्ति के लिए वह जघन्य-से-जघन्य कार्य करते भी नहीं हिचकिचाता । थोड़े-से पैसों के लिए अपने ईमान को बेचते नहीं सकुचाता। ऐसा प्रतिभाषित होता है कि अर्थ मनुष्य का जीवन-साध्य बन गया है, जबकि वास्तव में वह जीवन-यापन का साधनमात्र है। यह भयंकर भूल हुई है। इस भूल के कारण समाज में भ्रष्टाचार, शोषण, चोरबाजारी, रिश्वत, हिंसा जैसी अनेकानेक बुराइयां व्यापक रूप में फैली हैं। आम आदमी का जीवन इन बुराइयों का घर बन गया है। क्या व्यापारी, क्या मजदूर, क्या विद्यार्थी, क्या अध्यापक, क्या पुरुष और क्या महिला सभी कमोबेश इन बुराइयों की गिरफ्त में हैं । और तो क्या, शासक-वर्ग भी, जिस पर राष्ट्र के प्रशासन को चलाने की गुरुतर जिम्मेवारी होती है, इन बुराइयों से मुक्त नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है, जो इन बुराइयों से सर्वथा बचा हुआ हो । ऐसी स्थिति में राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल कैसे होगा । इसलिए मैं सभी से कहना चाहता हूं कि वे इस बिन्दु पर गंभीरता से चिंतन करें और इस धारणा को हृदय में अंकित कर पुष्ट कर लें कि अर्थ जीवन का साध्य नहीं है। उसके लिए अपना ईमान नही बेचना है, गलत काम नहीं करना है । यदि व्यापक रूप में यह एक कार्य होता है, तो निस्संदेह राष्ट्रीय चरित्र ऊंचा उठेगा।
मैं एक अकिंचन परिव्राजक हूं। कोई भौतिक मांग मैं आपसे नहीं करूंगा । केवल एक अपेक्षा आपसे रखता हूं कि आप अपने जीवन को नैतिक, प्रामाणिक एवं सच्चरित्रनिष्ठ बनाए रखने के लिए सदा जागरूक रहें । यदि आपका जीवन इस दृष्टि से स्वस्थ है, तब तो बहुत शुभ है। बस, आप
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महके अब मानव-मन
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