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सम्पादकीय
अध्यात्म भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व है । यह सच है कि अध्यात्म सार्वभौम और सार्वजनीन तत्त्व है, पर उसके समानान्तर उतना ही सच यह भी तो है कि सभी लोग उसे पहचान नहीं पाते, प्राप्त और आत्मसात् नहीं कर पाते । वही व्यक्ति उसे पहचान पाता है, प्राप्त और आत्मसात कर पाता है, जो अपनी आत्मा को तपाता है, खपाता है और साधना की गहराइयों में उतरता है।
गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी उन विरल महापुरुषों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल अध्यात्म की गहराइयों और ऊंचाइयों को मापा ही है, अपितु साधिक अर्ध शताब्दी से आध्यात्मिक जगत् का कुशल नेतृत्व भी कर रहे हैं । पर इस क्षेत्र में उनकी इससे भी अधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से अध्यात्म को सर्वजनसुलभ करवाया है। प्रकारान्तर से हम ऐसा भी कह सकते हैं कि उनका हर प्रवचन अध्यात्म का एक बोध-पाठ है। अपनी इस विशिष्ट गुणात्मकता के कारण उनके प्रवचन कभी भी पुराने और बासी नहीं लगते । जब भी उन्हें सुना-पढ़ा जाता है, उनका शब्द-शब्द शाश्वत सत्य का संगान करता हुआ एक नवीनता, सार्थकता एवं प्रासंगिकता की प्रतीति करवाता है।
शाश्वत सत्य के साथ-साथ गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी ने अपने प्रवचनों में युगीन समस्याओं को जिस प्रभावी ढंग से उकेरते हुए उनका सटीक एवं समुचित समाधान प्रस्तुत किया है, उससे उनकी सार्थकता और प्रासंगिकता और अधिक गहरा गई है। युगीन समस्याओं के सन्दर्भ में अध्यात्म की उपादेयता की जो प्रस्तुति उनके प्रवचनों में हुई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी के प्रवचनों को 'प्रवचन पाथेय ग्रन्थमाला' के रूप में संकलित-संपादित कर प्रस्तुतीकरण करने का कार्य पिछले कुछ समय से चल रहा है। इस ग्रन्थमाला के सतरह पुष्प लोगों के हाथों में पहुंच चुके हैं । इसी शृंखला में अठारहवें पुष्प के रूप में प्रकाशित हो रहे 'महके अब मानव-मन' में गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी द्वारा सन् १९५८ में प्रदत्त प्रवचनों में से सत्तानबे प्रवचन संकलित हैं। यद्यपि वर्णात्मक दृष्टि से संकलित प्रवचन बहुत संक्षिप्त हैं, तथापि उनमें शाश्वत एवं युगीन सत्य का स्वर कहीं भी मंद नहीं हुआ है । हां, प्रवचनों में यत्र-तत्र पुनरुक्ति परिलक्षित
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