________________
आठ
होती है । पुनरुक्ति को साहित्य में एक दोष माना गया है। पर वह सर्वत्र दोष नहीं है। जहां प्रवाचक को अपनी किसी बात को पुष्ट करना होता है, किसी नए मूल्य की स्थापना करनी होती है, समाज की मस्तिष्कीय धुलाई (Brain Washing) या मस्तिष्कीय प्रशिक्षण जैसा कार्य करना होता है, वहां पुनरुक्ति दोष नहीं, अपितु आवश्यक तत्त्व है, गुण है । वैसे भी क्षेत्रान्तर और कालान्तर से एक ही बात को बार-बार कहना पुनरुक्ति दोष की सीमा में नहीं आता। इस पुस्तक की पुनरुक्ति इसी भूमिका पर खड़ी है । यदि पाठक पुस्तक के प्रत्येक प्रवचन को पूर्वापर्य सम्बन्ध के बिना स्वतंत्र रूप में पढेंगे तो उन्हें पुनरुक्ति दोष जैसी कोई बात नजर नहीं आएगी।
___ गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी के प्रवचनों की जो सहज बेधकता, प्रभावोत्पादकता और हृदय को छूने की अर्हता है, उसे उसी रूप में सुरक्षित रखने के लिए उनका उसी स्तर पर संकलन-संपादन हो, यह नितांत अपेक्षित है। इस परिप्रेक्ष्य में अपनी अक्षमताओं से मैं बहुत भली-भांति परिचित हूं। सलक्ष्य प्रयत्न करके भी उनके प्रवचनों की उपरोक्त गुणात्मकता को एक सीमा तक ही सुरक्षित रख पाया हूं। पर इस अभाव में भी मुझे इस बात का आत्मतोष है कि मैं पूज्य गुरुदेव के निदेश का पालन करने में अपने कुछ जीवन-क्षणों को सार्थक बना सका।
गणाधिपति पूज्य गुरुदेवश्री तुलसी एक कुशल जीवन-शिल्पी हैं। मेरे जैसे न जाने कितने-कितने जीवन-प्रस्तरों को तरासने में उन्होंने अपनी सृजनात्मक क्षमता का उपयोग किया है। मैं इस ग्रन्थमाला के सम्पादनकार्य के साथ जुड़ सका, यह उनकी कृपा और आशीर्वाद का ही प्रतिफल है। मानता हूं, इस कार्य में नियोजित कर उन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मेरे विकास का एक नया आयाम खोला है । इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं। पर इसके लिए शाब्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने जैसी बात उनके अनुग्रह के समक्ष बहुत बौनी लगती है । बस, उनके वरदहस्त की छत्रछाया में इस कार्यदिशा में कदम-कदम आगे बढ़ता रहूं, यही कमनीय है।
संघपरामर्शक मुनिश्री मधुकरजी का कुशल संरक्षण मेरे लिए सर्वकालिक अयाचित मार्गदर्शन है। उनकी सहज प्रेरणा, सुझाव, प्रोत्सहन एवं निदेश से मेरे जीवन-विकास की विभिन्न दिशाएं आलोकित होती रही हैं।
गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी के प्रवचनों को सुन-पढ़कर अनगिन लोगों ने अध्यात्म एवं उसके उपजातीय धर्म, मानवता, नैतिकता के सदाबहार गुण-सुमनों की भीनी-भीनी गंध से अपने मन को महकाया है। 'महके अब मानव-मन' के प्रवचन भी यह सार्थकता सिद्ध करेंगे, ऐसी आशा करता हूं। प्रज्ञालोक जैन विश्वभारती, लाडनूं
मुनि धर्मरुचि १६ सितम्बर १९९६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org