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मानव-जीवन की विडम्बना
यह कैसी विडम्बनाभरी बात है कि आंखों के होते हुए भी आज आदमी अधा बना जा रहा है। यद्यपि उसके चर्म-चक्षु खुले हैं, पर अन्तर चक्षु मुंदे-से हैं। वह जीवन का मूल्यांकन आचार और विचार से नहीं, अपितु सिक्कों से कर रहा है । आत्म-शुद्धि और जीवन की पवित्रता के साधन-धर्म को स्वार्थपूर्ति का साधन बना रहा है । क्या यह आंखों के रहते अंधापन नहीं है ? मानव-जीवन की विडम्बना नहीं है ? यदि मानव नहीं संभला और इसी प्रवाह में बहता चला तो वह अपने अस्तित्व को विलीन कर देगा, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि मानव अपने विवेक को जगाए, धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझे और उसकी सही स्थान पर प्रतिष्ठा करे। पूछा जा सकता है कि धर्म का सही स्वरूप क्या है ? धर्म का सही स्वरूप है- सत्य, अहिंसा, संतोष जैसे तत्त्वों की साधना। इन तत्वों को व्यक्ति अपने जीवन में संजोए। यही धर्म की सही प्रतिष्ठा होगी। यदि ऐसा होता है तो मैं पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूं कि उसके अन्तर् चक्षु स्वयं उद्घाटित हो जाएंगे। उसे अपने जीवन में चारों ओर एक नए आलोक का दर्शन होगा। दूसरे शब्दों में कहूं तो उसका कायाकल्प हो जाएगा। वह अपने-आपको एक ऐसे नए स्वरूप में देखेगा, जो दुःख का नहीं, सुख का प्रतीक होगा। अशान्ति का नहीं, शान्ति का प्रतीक होगा । विषमता का नहीं, समता का प्रतीक होगा । अणुव्रत आंदोलन उसकी सम्प्राप्ति का एक व्यवहार्य उपक्रम है। आप इस आन्दोलन के दर्शन को समझे, इसकी आचार संहिता को स्वीकार कर अणुवती बनें। निश्चित ही आपको अनिर्वचनीय संतोष की अनुभूति होगी।
उन्नाव ३ मई १९५८
मानव-जीवन की विडम्बना
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