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मानवता का आंदोलन
अतीत और वर्तमान
भारतवर्ष एक अध्यात्मप्रधान देश है। अध्यात्म एवं धर्म के संस्कार यहां के लोगों की नस-नस में प्रवाहित रहे हैं । प्राचीन समय में यहां के आम आदमी का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था। यहां तक कहा जाता है कि व्यापारी दुकानों में ताले नहीं लगाते थे। बाहर जानेवाले घरों को खुला छोड़कर चले जाते । वापस आने पर उन्हें अपने घर का सारा समान ज्यों-का-त्यों पड़ा मिलता । लोगों में दूसरे की वस्तु को चोरी की भावना से लेने की प्रवृत्ति नहीं थी। वे सामान्यतः संतोष का जीवन जीते थे। उनकी वृत्ति सात्विक थी। सादगी और स्वावलबन उनके जीवन के शृंगार थे । पर आज स्थिति इसके सर्वथा प्रतिकूल देखने को मिल रही है । लोगों का नैतिक स्तर रसातल को छूने लगा है। लोभ का भूत इस तरह सवार हो गया है कि व्यक्ति संसार का सारा धन बटोर लेना चाहता है, जैसे-तैसे बटोर लेना चाहता है। सादगी और स्वावलंबन की बातें कहीं अपवाद रूप में ही देखने को मिलती हैं। भ्रष्टाचार इस तरह व्याप्त हो गया है कि धर्मस्थानों में भी व्यक्ति अपने-आपको सुरक्षित महसूस नहीं करता। और तो क्या, उसको यहां तक आशंका बनी रहती है कि कहीं कोई जूते उठा न ले जाए। ग्राहक बाजार में जाता है तो इस बात के लिए आशंकित रहता है कि वस्तु का क्रय करते हुए वह कहीं ठग न लिया जाए। समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है, जो अनैतिकता एवं अप्रामाणिकता से सर्वथा मुक्त हो, भ्रष्टाचार से अछूता हो। मैं मानता हूं, यह स्थिति राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ा अवरोध है। यदि राष्ट्र के नागरिक सच्चे मन से राष्ट्र के भविष्य को उज्ज्वल देखना चाहते हैं तो उन्हें अपने जीवन की धारा को बदलना होगा। स्वार्थ और लोभ जैसी हीन वृत्तियों से दामन छुड़ाकर समता
और संतोष के साथ सम्बन्ध जोड़ना होगा । अप्रामाणिकता, अनैतिकता, धोखाधड़ी जैसे विकारों को जीतकर नीतिनिष्ठा, प्रामाणिकता एवं सचाई से जीवन को विभूषित करना होगा।
मानवता का आंदोलन
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