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उसका ज्ञान भी अज्ञान है । फिर उससे सम्यक् आचरण की तो आशा भी कैसे की जा सकती है। इसलिए सबसे पहले व्यक्ति को तत्त्व के प्रति अपनी श्रद्धा को सम्यक् बनाना चाहिए । जरूरी है आत्म-दर्शन का भाव
ज्ञान के सन्दर्भ में भी एक बात जान लेने की है। ज्ञान के पीछे आत्म-दर्शन का भाव होना चाहिए। जिस ज्ञान के पीछे आत्म-दर्शन का अभाव होता है, वह व्यक्ति के लिए वरदान नहीं बन सकता । आज वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों से सारे संसार को चमत्कृत किया है। यह ज्ञान का कोई कम विकास नहीं है । पर कहां है उसके पीछे आत्म-दर्शन का भाव ? ऐसी स्थिति में वह वरदान कहां बन रहा है ? तब उसे सद्ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ? इसका ही तो यह फलित है कि सच्चरित्र के रूप में उसका जो परिणाम सामने आना चाहिए था, वह नहीं आ रहा है । मानव अपनी मानवता को तजकर दानव बन रहा है। उस पर भौतिकता प्रभावी और हावी हो रही है।
___ सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चरित्र की इस पावन त्रिवेणी में व्यक्ति-व्यक्ति स्नात हो, यह सबसे बड़ी अपेक्षा है। इस अपेक्षा की पूर्ति से ही सुख-शांतिमय जीवन की आकांक्षा पूरी हो सकती है, अन्यथा वह आकाशकुसुम तोड़ने जैसी बात होगी। सच्चा सुख क्या है ?
___ परन्तु सुख के सन्दर्भ में लोगों में भ्रांति बहुत है। बहुत कम लोगों को वास्तविक सुख की पहचान है । प्रश्न है, हम वास्तविक सुख किसे माने ? हसारे ऋषि-मुनियों ने इस दिशा में हमारा कुशल मार्ग-दर्शन किया है। परिणाममधुर सुख ही वास्तविक सुख है । आपातमधुर सुख अर्थात् वार्तमानिक क्षणिक सुख वास्तविक सुख नहीं है। पदार्थसापेक्ष सुख मात्र आपात-मधुर है, परिणाममधुर नहीं, इसलिए वह वास्तविक सुख कदापि नहीं हो सकता । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना से प्राप्त होनेवाला सुख परिणाम-मधुर है, इसलिए वह वास्तविक सुख है । यदि आपके मन में इस वास्तविक सुख को प्राप्त करने की ललक है तो आप भी इन तीनों तत्त्वों की आराधना की दृष्टि से जागरूक बनें । आप का जीवन सार्थक और सफल हो जाएगा।
कानपुर २४ अप्रैल १९५८
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महके अब मानव-मन
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