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सुखी जीवन का साधना-पथ
सार्थक जीवन की पहचान
मनुष्य जीवन दुर्लभ है, अमूल्य है-यह शास्त्रों की वाणी है । ऐसा क्यों ? कारण यही कि इस जीवन में जो आत्माराधना की जा सकती है, वह अन्य किसी जीवन में संभव नहीं है। पर बड़े खेद की बात है कि इस जीवन का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है। कोई इसका मूल्य पैसों से आंक रहा है तो कोई अन्य जड़ पदार्थों से । मैं मानता हूं, इस प्रकार मूल्यांकन करनेवाला कोई भी व्यक्ति जीवन की सार्थकता प्राप्त नहीं कर सकता। पूछा जा सकता है, सार्थक जीवन की पहचान क्या है ? सार्थक जीवन की पहचान बहुत सीधीसी है । सुख-शांतिमय जीवन सार्थक जीवन है। जिस व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति नहीं, उसका जीवन सार्थक जीवन कदापि नहीं हो सकता, भले वह बहुत बड़ा धनपति क्यों न हो, बड़े-से-बड़ा सत्ताधीश क्यों न हो।
जीवन को सुख-शांतिमय बनाने के लिए, जीवन की सर्थकता प्राप्त करने के लिए हमारे तीर्थंकरों ने साधन रूप में तीन तत्व बताये हैं । वे तीन तत्व हैं -- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । सम्यक् दर्शन का मूल्य
दर्शन का अर्थ यहां देखना या फीलोसफी नहीं है। यहां इसका अर्थ है-तत्त्व-श्रद्धा । सम्यक् दर्शन अर्थात् यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा । जो तत्व जैसा है, उसे ठीक उसी रूप में समझना । दिन को दिन समझना और रात को रात । अमृत को अमृत समझना और जहर को जहर । धर्म को धर्म समझना और अधर्म को अधर्म । अब कोई धर्म को अधर्म समझे या अधर्म को धर्म समझे, यह सम्यक् दर्शन नहीं है । यह मिथ्या दर्शन है। इस मिथ्या दर्शन अर्थात् अयथार्थ श्रद्धा या विश्वास से व्यक्ति का बहुत बड़ा अहित होता है । इतना बड़ा कि बहुत सारे व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। बड़ी-से-बड़ी. दूसरी कोई भी बुराई जितना बड़ा अहित करती है, उससे भी कई गुणा ज्यादा नुकसान इससे होता है। यहां तक कहा गया है कि जब तक व्यक्ति मिथ्यादर्शन से मुक्त होकर सम्यक् दर्शन को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक
सुखी जीवन का साधना-पथ
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