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आत्मशुद्धि का साधन है, उसे स्वार्थ-पोषण का साधन बनाकर उसका दुरुपयोग किया गया है। तभी तो यह स्वर सुनने को मिलता है कि धर्म खतरे में है । पर मैं आपसे ही पूछना चाहता हूं, क्या आत्म-शुद्धि का साधन-स्वरूप धर्म कभी खतरे में हो सकता है ? मेरा अटूट विश्वास है कि वह सभी प्रकार के खतरों, अवरोधों, बाधाओं और उलझनों से परे है। इसीलिए मैंने खुली आवाज में कहा, धर्म सदा अमर है और अमर रहेगा। संसार की बड़ी-सेबड़ी कोई शक्ति भी उसको नही मिटा सकती, उसकी तेजस्विता को धूमिल नहीं कर सकती। धन बनाम धर्म
धर्म के क्षेत्र में एक बात और बुरी हुई है । तथाकथित लोगों ने उसे धन के साथ जोड़ दिया है। पर मैं आपसे बहुत स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूं कि धन से उसका कोई संबंध नहीं है, कहीं दूर का भी संबंध नहीं है। यदि धन से ही धर्म होता तो पंजीपतियों की तो खूब बन जाती । और-और पदार्थों की तरह वे उसका भी अनाप-सनाप संग्रह कर लेते, गोदाम भर लेते । बेचारे गरीबों के तो कुछ भी हाथ नहीं लगता । वे देखते-के-देखते ही रह जाते । पर सचाई यह है कि धन से वह खरीदा नहीं जा सकता । उसकी प्राप्ति तो त्याग, संयम और तितिक्षा से होती है और उनकी साधना का अधिकार अमीर-गरीब, हरिजन-महाजन, स्त्री-पुरुष सबको समान रूप से है ।
बन्धुओ ! धर्म को विभिन्न प्रकार की विकृतियों से मुक्त कर उसे अपने सही रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए एक क्रांति की अपेक्षा है । अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से हम यही कार्य करना चाहते हैं । आप भी इस कार्यक्रम के साथ जुड़कर धर्म-क्रांति में योगभूत बन सकते हैं। क्या मैं आपसे सहयोग की अपेक्षा कर सकता हूं?
कानपुर २२ अप्रैल १९५८
धर्म का स्वरूप
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