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धर्म का स्वरूप
ऋषिप्रधान देश
भारतवर्ष अध्यात्म-साधना का एक महान् केन्द्र है । इसका एक अपना गौरवशाली इतिहास है। यहां के ऋषि-महर्षियों ने आत्म-तत्त्व की खोज और उसकी उपलब्धि में अपने जीवन को झोंक दिया था। इसीलिए मैं इसे ऋषिप्रधान देश कहता हूं, भले यह कृषिप्रधान देश कहलाता है। पर यह कितने खेद की बात है कि आज उसका गौरव धुंधला रहा है, समाप्त हो रहा है । जीवन-मूल्य बड़ी तेजी से बदल रहे हैं । जहां त्याग, संयम, आत्मानुशासन, सादगी आदि तत्व अच्छे जीवन के मापक थे, वहां सत्ता और संपत्ति के आधार पर व्यक्ति का अंकन किया जा रहा है। इसके कारण राष्ट्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो रहा है। व्यक्ति धन और सत्ता की प्राप्ति के लिए नीचेसे-नीचे धरातल पर उतरने में नहीं सकुचाता । इस स्थिति से राष्ट्र-हितैषी लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है । चारों तरफ निराशा व्याप रही है। पर मैं निराश-हताश नहीं हूं। हीनता-दीनता की बात मुझे पसंद नहीं है। मैं तो बड़े आशा भरे स्वर में कहना चाहता हूं कि प्रत्येक भारतीय को यह अनुभूति होनी चाहिए कि भारत की आत्मा मूच्छित अवश्य हुई है, वह मर नहीं गई है। जिस प्रकार अभिमान करना हानिकारक है, उसी प्रकार हीनभाव भी आत्म-शक्ति को कुंठित करनेवाला है। अपेक्षा इतनी ही है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक अपनी संयमप्रधान संस्कृति को समझे और उसको पुनर्जीवित करने के प्रति जागरूक बने। धर्म अमर है, अमर रहेगा
__ भारत के ऋषि-मुनियों ने यहां जन-जन को धर्म के संस्कारों से संस्कारित किया। धर्म का यथार्थ स्वरूप आत्म-साधना एवं जीवन-शुद्धि में सन्निहित है । पर आज उसका यह सही स्वरूप समाप्त हो रहा है । उसे प्रदर्शन और आडम्बर में जकड़ दिया गया है। जहां वह धार्मिक के जीवन में झलकना चाहिए, वहां आज उसे तथा उसके साक्षात् प्रतीक भगवान और ज्ञान को स्वर्ण, रजत एवं मृणमय पाषणों में मढ़ दिया गया है। जो धर्म
मानव-मन
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