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धर्म को सच्ची आराधना
संयम का आनंद
आपसे
आदमी की यह सहज आकांक्षा होती है कि मैं बड़ा बनूं । आकांक्षा कोई बुरी नहीं है, बशर्ते बड़प्पन का मानक सही हो । मेरी दृष्टि में विपुल धन-राशि, गगनचुंबी अट्टालिकाएं, आज्ञावान सेवकों की भीड़, सत्ता और अधिकार बड़प्पन-मूल्यांकन के आधार नहीं हैं । वास्तव में बड़ा वही है, जिसने आत्म शुद्धि के मार्ग पर चरणन्यास किया है, संयम के साथ अपने जीवन को जोड़ा है । संयम के आनन्द की बात मैं क्या बताऊ ? और वह बताने की बात है भी नहीं । उसे तो मात्र अनुभव ही किया जा सकता है। जो भी व्यक्ति इस पथ पर पदन्यास करता है, उसे स्वयं यह अनुभूति हो जाती । यह एक ऐसी आनन्दानुभूति है, जो अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं, असंभव भी है । इस आनन्द की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भौतिक सुविधा और अनुकूलता की तनिक भी अपेक्षा नहीं रखता । इस अपेक्षा से अभाव का जीवन जीनेवाला भी अपने जीवन को संयममय बनाकर स्वयं को इस आनन्दानुभूति से गुजार सकता है ।
त्याग और संयम की प्रतिष्ठा हो
हम भारतीय तत्त्व-चिंतन और संस्कृति पर गौर करें। यहां बाहर से अकिंचन दिखनेवाला व्यक्ति सर्वाधिक सम्मानास्पद एवं वंदनीय माना गया। सत्ता और संपत्ति को वह मूल्य नहीं मिला, जो त्याग और संयम को मिला । पर आज यह स्थिति बदल रही है। सत्ता और संपत्ति को अतिरिक्त मूल्य मिलने लगा है। त्याग का मूल्य लोग कुछ कम कर आंकने लगे हैं । संयम की प्रतिष्ठा क्रमशः घट रही है । यह अच्छा नहीं हुआ है । इसके परिणामस्वरूप आज जन-जीवन में विकृतियां घर कर रही हैं। चारों ओर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। आदमी येन-केन-प्रकारेण अधिक-से-अधिक धन बटोरने में लगा है। सत्ता और अधिकार प्राप्त करने के लिए बेतहाशा दौड़ रहा है । संपत्ति और सत्ता प्राप्ति की यह अंधी दौड़ उसे पतन के गर्त में ले जा रही है । अन्तर् - जागृति और स्वोन्मुखता का तत्त्व लुप्तप्रायः दिखाई
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महके अब मानव-मन
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