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बेचते, अवांछनीय-से-अवांछनीय प्रवृत्ति करते जरा भी नहीं सकुचाता । उसकी आत्मा जरा भी प्रकंपित नहीं होती। शहरों में रहने वाले बहुतसारे व्यापारी अपनी दुकान में विक्रय की जाने वाली वस्तुओं में तरह-तरह की मिलावट कर स्वार्थों की वेदी पर नैतिकता को कुर्बान करते तनिक भी नहीं हिचकिचाते । गांव वाले भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। वे दूध में पानी तथा घी में बेजिटेबल मिलाते हैं । यह घोर पतन है, मानवता की विडम्बना है, महापाप है । मानव क्यों नहीं सोचता, जिस पैसे के लिए वह इतना पाप करता है, मरने के समय क्या वह साथ निभाएगा? परभव में उसके साथ चलेगा ? जब यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वह मौत के समय साथ नहीं निभाता, एक नया पैसा भी परभव में साथ नहीं चलता, तब फिर इतना पाप किसलिए? क्या यह एक प्रकार का पागलपन नहीं है ? नशा नहीं है ? मूढता नहीं है ? अपेक्षा है, मनुष्य अपने विवेक को जगाए और सदगुणों से अपने मन को महकाए। पतन के गर्त से निकल कर मानवता का राजमार्ग अपनाए। अणुव्रत आंदोलन मानवता का राजमार्ग प्रशस्त करता है। आप आज से ही शुभ पदन्यास करें ।
रायपुरा १४ मार्च १९५८
महके अब मानव-मन
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