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व्यावहारिक जीवन कम प्रामाणिक है। मैंने सुना है, पश्चिमी देशों में ऐसी व्यवस्था सुचारु रूप से चलती है कि लोग पैसे डाल जाते हैं और अखबार ले जाते हैं। दुकान पर कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं रहता। शाम को हिसाब मिलाने पर एक पैसा भी कम नहीं होता। यह इस बात की संसूचना है कि वहां के लोगों में नैतिकता के संस्कार पुष्ट हैं। उनमें राष्ट्रीय भावना जागृत है। उनके किसी कार्य से राष्ट्र का अहित न हो जाए, इस दृष्टि से वे जागरूक रहते हैं। पर भारतवर्ष की स्थिति इससे भिन्न है । यहां इस राष्ट्रीय भावना का विकास अब तक सही ढंग से नहीं हो पाया है । यह राष्ट्र के विकास में एक बड़ी बाधा है । यदि राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल बनाना है तो इस बाधा को समाप्त करना होगा । प्रश्न है, इस बाधा को दूर कैसे किया जाए ? चूंकि भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान संस्कृति है, इसलिए यहां के लोगों के दिलों में अध्यात्म और धर्म की एक छाप है, उसका प्रभाव है। इस स्थिति में मेरा विश्वास है कि अध्यात्म और धर्म को जीवन-व्यवहार के साथ जोड़कर इस बाधा को दूर किया जा सकता है। पर ध्यान रहे, धर्म से मेरा तात्पर्य उस रूढ़िगत धर्म से नहीं है, जो केवल उपासना और क्रियाकांडों तक ही सीमित हुआ रहता है । जीवन-व्यवहार को छूता तक नहीं। मैं मानता हूं, धर्म का यह तथाकथित स्वरूप ही वह हेतु है, जिसे देखकर पाश्चात्य विद्वानों ने उसे अफीम की गोली तक कह दिया। अत: उपस्थित विद्यार्थियों से मेरा आग्रह है कि आप प्रारम्भ से ही अहिंसा, सत्य, शील, संतोष, विनय, आत्मानुशासन, सादगी, स्वावलम्बन जैसे धर्म के मौलिक तत्त्वों से जीवन-व्यवहार को अनुप्राणित करने का प्रयास करें। इससे आपका स्वयं का जीवन तो स्वस्थ बनेगा ही, राष्ट्र के भविष्य को संवारने में भी निर्णायक भूमिका निभा सकेंगे।
जयपुर २६ फरवरी १९५८
ज्ञान की सार्थकता कब ?
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