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धर्म जीवन-व्यवहार का तत्त्व बने
धर्म सुख और शान्ति से जीने का एकमात्र साधन है, आधार है । पर आज वह अपनी इस गुणात्मकता को साबित नहीं कर पा रहा है। करे भी तो कैसे ? उसका स्वरूप विकृत जो हो गया है। वह आज ग्रन्थों और पंथों में जकड़ा पड़ा है। धर्मस्थानों की शोभा बढ़ा रहा है। जीवन और जीवन-व्यवहार से उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा है। इससे धर्म और व्यवहार के बीच एक गहरी खाई-सी बन गई है । व्यक्ति धर्म-स्थान में जाकर वीतरागता का भाव दिखाता है पर घर, ऑफिस और दुकान में लड़ाई-झगड़े करता है, धोखाधड़ी कर ग्राहकों को ठगता है, शोषण करता है । ऐसा कहना चाहिए कि वह अपनी धार्मिकता को उतार कर खूटी पर टांग देता है। आप ही बताएं, ऐसी धर्माराधना फलदायी कैसे हो सकती है ? इस स्थिति में यथाशीघ्र परिवर्तन अपेक्षित है। दूसरे शब्दों में कहूं तो धर्म के क्षेत्र में आज क्रांति करने की अपेक्षा है, जिसके फलस्वरूप धर्म केवल उपासना का तत्त्व न रहे, वह ग्रन्थों, पंथों और धर्म-स्थानों के घेरे से बाहर निकलकर जन-जन के जीवन-व्यवहार में स्थान प्राप्त कर सके, उसके आचरण का हिस्सा बन सके । ऐसी स्थिति में ही वह अपनी सही प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकेगा, अपनी गुणात्मकता को सिद्ध कर पाएगा, जन-जन के लिए सुख और शांति का निर्विकल्प साधन और आधार बन सकेगा। जब तक यह स्थिति नहीं बनती है, उसकी गुणात्मकता के आगे लगे प्रश्नचिह्न को नहीं हटाया जा सकता। अणुव्रत आन्दोलन, जिसका अभियान हमने पूरे राष्ट्र में छेड़ रखा है, धर्म को जीवन के व्यावहारिक धरातल पर उतारने का एक उपक्रम है। इसके छोटेछोटे संकल्पों को अंगीकार कर व्यक्ति सही अर्थ में धार्मिक कहलाने का अधिकारी बन सकता है।
जयपुर २६ फरवरी १९५८
धर्म जीवन-व्यवहार का तत्त्व बने
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