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अभ्युदय की दिशा
शांति का स्रोत
आज संसार अशान्त है, यह एक प्रकट सचाई है । वह अशान्त क्यों है ? यह किसीसे अज्ञात नहीं है। आज चारों ओर युद्ध की चिनगारियां उछल रही हैं । ये चिनगारियां उसे आक्रान्त बनाए हुई हैं। लोग शान्ति चाहते हैं । वे नहीं चाहते कि युद्ध हो, मानव-संपदा का नाश हो। पर बन्धुओ ! प्रश्न तो यह है, शान्ति कहां से आए ? वह आकाश से तो टपक नहीं सकती, न ही धरती पर खेतों में उग ही सकती है । उसका तो एकमात्र स्रोत व्यक्ति की अपनी आत्मा ही है। उसे वहीं खोजा जा सकता है।
और इस बात का मैं भरोसा दिला सकता हूं कि वहां खोजने से वह अवश्य प्राप्त होगी। शत्रु को नहीं, शत्रुता को मिटाया जाए
__ वैज्ञानिकों ने अणुबमों से शान्ति और सुख-समृद्धि की कल्पना की थी। पर बहुत स्पष्ट है कि उनकी कल्पना मात्र कल्पना ही रही, वह यथार्थ के धरातल नहीं उतर सकी । अगर शांति स्थापित करना है तो अहिंसा, सत्य, नीतिमत्ता, प्रामाणिकता आदि तत्वों का अवलम्बन लेना होगा, मंत्री की धार बहानी होगी। आप देखते हैं, व्यक्ति अपने शत्रु को निगल जाना चाहता है, उसका नामोनिशान मिटा देना चाहता है । पर प्रश्न है, क्या व्यक्ति के सोचने मात्र से शत्रु मिट जाएग? नहीं मिटेगा। एक मिटेगा, दूसरा पैदा हो जाएगा। दूसरा मिटा और तीसरा पैदा हो जाएगा। और यह क्रम आगे-सेआगे चलता रहेगा । इसका तात्पर्य यह हुआ कि हिंसा के माध्यम से शत्रु को नहीं मिटाया जा सकता। स्थायी रूप से शत्रु को मिटाने के लिए अहिंसक तरीका ही कारगर सिद्ध हो सकता है । प्रकारांतर से इस बात को यों कहा जा सकता है कि शत्रु को नहीं, शत्रुता को मिटाने का प्रयास होना चाहिए, मिटाना चाहिए। रोगी को नहीं, रोग को मिटाया जाना चाहिए। अगर रोग मिट गया तो रोगी रहेगा ही कौन । अगर शत्रुता मिट गई तो शत्रु का अस्तित्व ही कैसे रहेगा।
अभ्युदय की विशा
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