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संघ का आचार्य होने के नाते मेरा भी दायित्व है कि मैं यहां रहने वाली वृद्ध, अशक्त एवं ग्लान साध्वियों की सेवा की समुचित व्यवस्था का ध्यान रखू । इसलिए मैं सेवाकेन्द्र में सेवा देनेवाली साध्वियों की मात्र नियुक्ति ही नहीं करता, अपितु सेवा समुचित ढंग से हो रही है या नहीं, इसका भी ख्याल करता हूं। जब कभी मैं लाडनूं आता हूं तो स्वयं उन वृद्ध, ग्लान एवं अशक्त, साध्वियों-माताओं से पूछता हूं--'आपको यहां कोई असुविधा और कष्ट तो नहीं है ? आपकी सेवा-परिचर्या अच्छे ढंग से तो होती है ?' मेरे द्वारा इतना-सा पूछे जाने मात्र से वे साध्वियां गद्गद हो जाती हैं और कहती हैं--'हमें ये साध्वियां (सेवा में नियुक्त) अपने हाथों में थुकाती हैं। अत्यंत जागरूकता एवं जिम्मेवारी के साथ हमारे सुख-दु.ख का ध्यान रखती हैं, बड़ी आत्मीयता से हमारी सेवा-परिचर्या करती हैं। हमें यहां नन्दन-वन जैसा आनंद है। हमारा संयम-जीवन अत्यंत आत्म-समाधि के साथ बीत रहा है।...'
यहां उल्लेखनीय बात यह है कि उनके कथन में कहीं कोई कृत्रिमता और औपचारिकता का आभास नहीं होता। सुनने-देखने वालों को ऐसा अनुभव होता है कि ये मुंह से नहीं, बल्कि हृदय से बोल रही हैं । ऐसी स्थिति जब मैं देखता हूं तो मुझे इस बात का बहुत तोष होता है कि हमारी सेवा करनेवाली साध्वियां अपनी सेवा-जिम्मेवारी को बहुत अच्छे ढंग से निभा रही हैं। इससे वे स्वयं तो लाभान्वित होती-ही-होती हैं, वृद्ध, ग्लान साध्वियों की चित्त-समाधि में भी बहुत बड़ी निमित्त बनती हैं। इसके साथ ही संघ की बहुत अच्छी प्रभावना भी होती है ।।
लाडनूं सेवाकेन्द्र का यह सुनहरा इतिहास सभी के लिए अत्यंत प्रेरक है। तेरापंथ धर्मसंघ के आदर्श अनुशासन, संगठन एवं सेवा-व्यवस्था का सजीव उदाहरण है। मैं चाहता हूं, हमारी साध्वियां सेवाकेन्द्र की इस गौरवशाली परंपरा को अक्षुण्ण रखने के प्रति सदैव जागरूक रहें।
लाडनूं २६ जनवरी १९५८
महके अब मानव-मन
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