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प्रेरणा का प्रसंग
सेवा निर्जरा का महान् हेतु है
जैन शासन में वैयावृत्य -- सेवा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सेवा करने वाला साधक स्वयं तो निर्जरा का महान् लाभ कमाता ही कमाता है, साथ ही जिसकी सेवा करता है, उसकी चित्त-समाधि में भी बहुत बड़ा निमित्त बनता है । शास्त्रों में बताया गया है कि आचार्य, वृद्ध, ग्लान, शैक्ष आदि की सेवा करने वाला उत्कृष्ट परिणाम में तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध तक कर सकता है । ख्याल रहे, तीर्थंकर नाम कर्म पुण्य की उत्कृष्ट प्रकृति है । चूंकि पुण्य का बंधन निर्जरा के साथ ही होता है, इसलिए इससे यह बात बहुत सहजतया समझी जा सकती है कि सेवा से कितनी महान् निर्जरा होती है । प्रासंगिक तौर पर इतना और स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं कि साधक सेवा पुण्यार्जन के लिए नहीं, बल्कि मात्र निर्जरा के लिए करे । पुण्य-बंधन की कामना करना तो अपने आप में पाप-बंधन का हेतु है । हमारे आत्मार्थी साधु और साध्वियां इस तथ्य को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं, इसलिए वे ऐसी भूल कैसे कर सकते हैं ।
सेवा - व्यवस्था का सजीव उदाहरण
लाडनूं हमारे धर्मसंघ का सेवाकेन्द्र है । यहां संघ की वृद्ध, ग्लान एवं अशक्त साध्वियों को रखा जाता है और उनकी सेवा व्यवस्था की जाती है । हमारे धर्मसंघ में वृद्ध, ग्लान एवं अशक्त साधु-साध्वियों की परिचर्या और सार-संभाल कितनी तत्परता, जागरूकता एवं दायित्वपूर्ण ढंग से होती है, इसका यह एक जीवन्त निदर्शन है । सो वर्षों से चल रहे इस सेवाकेन्द्र में जिन-जिन को भी सेवा का दायित्व संभलाया गया, उन्होंने बड़ी लगन, निष्ठा एवं तन्मयतापूर्वक उसे निभाया है, इस बात की मुझे सात्त्विक प्रसन्नता है । इतना ही नहीं, साध्वियां सेवाकेन्द्र में अपनी नियुक्ति के लिए मुझसे अत्यन्त विनय नम्रतापूर्ण निवेदन और आग्रह करती रहती हैं । यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हमारी साध्वियों के मन में सेवा के प्रति अत्यधिक उत्साह और उत्सुकता है ।
प्रेरणा का प्रसंग
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