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स्याद्वाद का मूल्य
स्याद्वाद जैन दर्शन की जगत् को एक महान देन है । यह व्यक्ति की सोच को परिष्कृत करता है । उसे एकांगी दृष्टि से बचाकर विविध दृष्टियों एवं अपेक्षाओं से सोचने-देखने का मार्ग प्रशस्त करता है । यह 'यों ही है' इस एकान्तिक पकड़ के स्थान पर 'यों भी है' इस आपेक्षिक तथ्य को सामने रखता है। मेरी दृढ मान्यता है, यदि 'ही' के स्थान पर 'भी' को लोग काम लेना शुरू कर दें तो दुनिया का रूप ही बदल जाए । व्यक्तिव्यक्ति, परिवार-परिवार, समाज-समाज, प्रान्त-प्रान्त, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच परस्पर चलनेवाला संघर्ष-वैमनस्य बहुत सहजता से समाप्त किया जा सकता है। हम इस बात को समझे कि किसी भी स्तर पर परस्पर चलनेवाले संघर्ष, विवाद या वैमनस्य के केन्द्र में एकान्तिक आग्रह काम करता है । 'ही' काम करता है। 'ही' के स्थान पर 'भी' को स्वीकार करने का फलितार्थ यह होता है कि संघर्ष, विवाद और वैमनस्य की जड़ ही कट जाती है, उसका आधार ही हिल जाता है, कारण ही समाप्त हो जाता है। जब कारण ही समाप्त हो जाए, तब कार्य-- परिणाम का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है ।
परन्तु मुझे लगता है, यह सिद्धान्त केवल सिद्धान्त के स्तर पर ही रहा है, जीवन-व्यवहार के स्तर पर इसका उपयोग नहीं के बराबर ही हुआ है। औरों की बात तो हम एक बार छोड़ें, स्वयं जैन लोगों का जीवन भी इसके अनुरूप नहीं ढला है। अन्यथा क्या यह संभव है कि वे पारस्परिक कलह, विवाद और वैमनस्य के दलदल में फंसे रहें ? छोटी-छोटी बात के लिए कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाते रहें ? जैन लोगों को इस बारे में गंभीरता से ध्यान देकर अपनी चिन्तन शैली एवं जीवन-शैली को मोड़ देना चाहिए। इससे भी आगे मैं तो पूरे मानव-समाज से कहना चाहता हूं कि वह भगवान महावीर के इस महान् सिद्धान्त को जाने, आत्मसात् करे और उसके अनुरूप अपने-आप को ढालने का प्रयत्न करे, जिससे कि पारस्परिक समन्वयसामंजस्य की भावना विकसित हो पाए, सह-अस्तित्व एवं विश्व-मैत्री की बात साकार रूप ले सके । लाडनूं २२ जनवरी १९५८
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