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• जो स्वयं नहीं सुधरा, वह जनता को सुधार की क्या दिशा देगा ।
(९०)
• सम्यक् श्रद्धा व्यक्ति के लिए हर परिस्थिति में सत्य पर अडिग बने रहने की प्रबल प्रेरणा होती है । ( ९२ )
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● जो लोग धर्माराधना के क्षेत्र में जातिविशेष पर प्रतिबंध की बात करते हैं, वे वास्तव में धर्म के मर्म को समझते नहीं । धर्म तो सूरज की धूप और चांद की चांदनी की तरह है । उन पर कोई प्रतिबंध हो तो धर्म पर प्रतिबंध की बात समझ में आ सकती है । ( ९५,९६)
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अहिंसा, सत्य आदि तत्व इतने व्यापक हैं कि किसी के दंभ भरने से ये किसी संप्रदायविशेष की संकीर्ण सीमाओं में समाते नहीं । ( ९५)
जाति, वर्ण आदि तो समाजिक व्यवस्थाएं हैं, जो क्षेत्र, काल की अपेक्षानुसार समय-समय पर निर्मित होती रहती हैं, टूटती रहती हैं । इनको शाश्वत मानना भयंकर भूल है । (९६)
वही व्यक्ति ऊंचा और महान् है, जिसका आचरण और व्यवहार ऊंचा है, भले वह किसी भी जाति या वर्ण में क्यों न जन्मा हो ।
(९६)
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हिंसा तो स्वयं अशांति है, अशांति का कारण है, बल्कि सबसे बड़ा कारण है । उसके माध्यम से शांति की प्राप्ति का प्रयत्न करना उतना ही निरर्थक है, जितना निरर्थक खून से सने कपड़े को खून से का प्रयत्न । (९७)
हिंसा से युद्ध की आग में घी खींचने का काम ही हो सकता है, पानी डालने का कदापि यहीं । पानी डालने का काम तो अहिंसा का है । वही एकमात्र इस कार्य को करने में सक्षम है । (९७)
• अगर विश्व का एक किनारा अशांत है तो दूसरा किनारा शांत नहीं रह सकता । (९८)
• कैसी बिडम्बना है कि जनता लड़ना नहीं चाहती, युद्ध से दूर रहना चाहती है, पर कुछेक व्यक्तियों की महत्त्वाकांक्षा या पागलपन युद्ध की आशंका / संभावना को जन्म दे देता है । (९९)
• राजनीति संयम से अनुशासित नहीं है, इसलिए वह उच्छृंखल हो रही है । (९९)
• परिग्रह भोग - लिप्सा एवं भोगवृत्ति से पैदा होता है । ( ९९ ) अनैतिकता का हेतु बड़प्पन का भाव और मिथ्याचरण है । ( ९९ )
महके अव मानव-मन
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