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० परिणाममधुर सुख ही वास्तविक सुख है । आपातमधुर सुख अर्थात्
वार्त मानिक क्षणिक सुख वास्तविक सुख नहीं है । (६०) ० जिस बोध के साथ सम्यक् आचार का योग नहीं है, वह बोध या ___ ज्ञान व्यक्ति के लिए भार से अधिक और कुछ भी नहीं है । (६१) ० स्थायी परिवर्तन या सुधार हृदय-परिवर्तन से ही संभव है। (६२) ० जिस प्रकार भवन की मजबूती उसकी नींव की मजबूती पर निर्भर करती है, उसी प्रकार जीवन की स्वस्थता विद्यार्थी-जीवन की
स्वस्थता पर निर्भर है । (६३) ० धर्म का सही स्वरूप है-सत्य, अहिंसा, संतोष जैसे तत्त्वों की साधना ।
इन तत्वों को व्यक्ति अपने जीवन में संजोए। यही धर्म का सही
प्रतिष्ठा होगी। (७१) ० धर्म जीवन की पवित्रता का अद्वितीय साधन है । सुख और शांति का
एकमात्र आधार है । (७२) ० धर्म नैतिक, चारित्रिक एवं मानवीय मूल्यों की जन-जन में प्रतिष्ठा
का सबसे बड़ा आधार और साधन है । (७८,७९) ० धर्म मात्र परलोक-शुद्धि के लिए नहीं है, वह इस जीवन को भी
विकसित और उन्नत बनाने का साधन है । (७९) ० जो धर्म वर्तमान के जीवन को उन्नत और पवित्र नहीं बनाता, वह
परलोक की शुद्धि का साधन कैसे बन सकेगा ? (७९) ० पारतंत्र्य से बढकर इस जगत् में कोई दुःख नहीं होता, अभिशाप
नहीं होता। (८०) ० अहंकार जीवन-विकास का सबसे बड़ा अवरोधक तत्व है । (८३) ० चरित्र शून्य ज्ञान तो बैल पर लदी पुस्तकों के समान है, जिनका कि
उसके लिए भार ढोने से अधिक और कोई उपयोग नहीं होता ।।
० स्वयं जलकर ही दीपक दूसरों को प्रकाश बांट सकता है। (८४) ० सही मार्ग ही व्यक्ति को अभीप्सित मंजिल पर पहुंचा सकता है।
(८८) ० शुभ शुरुआत स्वयं से होगी, तभी समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण
की आकांक्षा फलीभूत हो सकेगी। (८९) ० ज्ञान की वे बड़ी-बड़ी बातें किस काम की, जिनका आचरण व्यक्ति
स्वयं नहीं करता। (८९,९०)
प्रेरक वचन
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