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व्यक्ति सुख और शांति की अनुभूति को प्राप्त हो सकता है । परिस्थितिवाद हावी न हो
मैं कई बार सोचता हूं कि लोगों की यह कैसी मनोवृत्ति है कि अपनी दुर्बलताओं को ऋजुता से स्वीकार नहीं करते । उनको छिपाने का प्रयत्न करते हैं और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विपरीत परिस्थितियों का राग आलापते हैं । वे कहते हैं युग की परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गई हैं कि नैतिकता, सच्चाई और प्रामाणिकता से जीवन-व्यवहार नहीं चल सकता।......"इस संदर्भ में मेरा अभिमत यह है कि ऐसा कथन करना आत्महीनता का परिचायक है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं युगीन स्थितियों से आंख मींच रहा हूं, उन्हें अस्वीकार कर रहा हूं। बदली युगीन स्थितियों को मैं स्वयं अनुभव कर रहा हूं, पर साथ ही परिस्थितिवाद को ही सब कुछ नहीं मानता । यदि व्यक्ति का कर्तृत्व प्रखर है, संकल्प पुष्ट है, आस्था दृढ़ है, तो वह विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी सच्चाई के मार्ग पर टिका रह सकता है। मैं इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं कि विपरीत परिस्थितियों के कारण ईमानदारी और सत्य-निष्ठा से व्यवहार चल नहीं सकता। हां, इतना तो संभावित है कि ईमानदारी और सत्य-निष्ठा से व्यवहार चलाने के लिए कृत-संकल्प व्यक्ति को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामने करना पड़े। पर हमें यह भी ख्याल रहना चाहिए कि कठिनाइयां स्थायी नहीं होतीं, शाश्वत नहीं होतीं । अन्ततः साहस के आगे घुटने टेक देती हैं, दम तोड़ देती हैं। इसलिए मैं आप सभी से कहना चाहता हूं कि परिस्थितिवाद को अपने चितन, आस्था और पुरुषार्थ पर हावी न होने दें। अणवत आंदोलन, जिसकी चर्चा मैंने अभी की, इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए आपका पथ-दर्शन कर सकता है।
राजलदेसर ५ जनवरी १९५८
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