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विद्यार्जन का उद्देश्य
सच्चा धार्मिक कौन ?
धर्म जीवन की पवित्रता का एकमात्र साधन है । पर वह जीवन की पवित्रता का साधन तब बनता है, जब उसकी सम्यक् आराधना की जाए, उसके आदर्शों को जीवन में ढालने का प्रयत्न किया जाए। आज के धार्मिकों स्थिति देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे उसकी सम्यक् आराधना कर रहे हैं । लोगों के व्यवहार और आचरण को देखकर तो बहुधा प्रश्न पैदा होता है कि धर्म उनके अन्तर को छुपा भी है ? धर्मस्थान में जाकर भले वे प्रह्लाद से भी अधिक भक्ति और धार्मिकता का प्रदर्शन करते हैं, पर घर, दुकान और दफ्तर में तो हिरण्यकश्यप से भी अधिक क्रूर और निर्दयी बने रहते हैं । आप ही बताएं, क्या एक धर्म का सच्चा आराधक कभी क्रूर और निर्दयी बन सकता है ? ग्राहकों को धोखा दे सकता है ? तोल- माप कर सकता है ? रिश्वत ले सकता है ? डकैती जैसे दुष्कर्म कर सकता है ? स्पष्ट है, नकारात्मक है । यह स्थिति इसी बात की के जीवन-व्यवहार में नहीं उतरा है, आचरण का हिस्सा नहीं बना है । उसे मात्र मुखौटे के रूप में स्वीकार किया गया है। जब तक यह स्थिति नहीं बदलती, व्यक्ति धर्म के सिद्धान्तों को जीवन - व्यवहार के धरातल पर नहीं उतारता, तब तक वह धार्मिक कहलाने का सच्चा अधिकारी नहीं बन
कालाबाजारी और कम
हत्या, इन सब संसूचना है
बलात्कार और प्रश्नों का उत्तर कि धर्म लोगों
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सकता ।
शिक्षा जीवन विकास के लिए है
आज पैसा, जीवन पर छाता जा रहा है । पैसे के इस बढ़ते प्रभाव के कारण बहुत सारी बुराइयां समाज में पनप रही हैं । थोड़े-से पैसों के लिए व्यक्ति हेय से हेय, अकरणीय-से-अकरणीय कार्य करने में भी संकोच नहीं करता । और तो क्या, शिक्षा का क्षेत्र भी अर्थ के अछूता नहीं रहा है । स्थिति यहां तक बनी है कि अर्थाजन ही समझा जाने लगा है, जबकि विद्यार्जन का उद्देश्य जीवन - विकास और आत्म जागरण है । यह उद्देश्य सबके सामने स्पष्ट होता तो शिक्षा जगत्
अनपेक्षित प्रभाव से विद्यार्जन का उद्देश्य
विद्यार्जन का उद्देश्य
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