________________
ज्ञान की सार्थकता
मेरे इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि मैं ज्ञान को सर्वथा अनुपयोगी मानता हूं । ज्ञान को अनुपयोगी मानने का कोई प्रश्न ही नहीं है । ज्ञान ही नहीं होगा तो व्यक्ति अच्छाई और बुराई को समझेगा ही कैसे । कैसे वह उनका विवेक कर सकेगा । ऐसी स्थिति में उसका आचार भी सम्यक् कैसे बन सकेगा । पर ज्ञान केवल जानने-समझने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। वह उसके हर व्यवहार और आचरण में प्रतिबिम्बित होना चाहिए। तभी ज्ञान की सही सार्थकता प्रकट हो पाती है ।
निष्कर्ष यह कि जीवन-जागरण के लिए ज्ञान और आचार का समन्वय नितांत अपेक्षित है । अणुव्रत आंदोलन इसी दर्शन पर आधारित स्वस्थ समाज निर्माण का एक अभियन है । इसके पास डंडे या कानून का बल नहीं है । यह तो व्यक्ति-व्यक्ति के मन में ग्लानि का भाव पैदा कर उसे बुराइयों से मुक्त करना चाहता है । उसकी नैतिक एवं चारित्रिक चेतना को संकृत करना चाहता है, जागृत करना चाहता है । उसके नैतिक बनने का मार्ग प्रशस्त करता है । सदाचारी बनने का पथ आलोकित करता है ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी १९ दिसम्बर १९५८
१६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
महके अब मानव-मन
www.jainelibrary.org