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जरूरी है ज्ञान और आचार का समन्वय
भारतीय संस्कृति संसार की एक महान संस्कृति है। इस संस्कृति की कुछ दुर्लभ विशेषताएं हैं। इसमें उस ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं माना गया, जो आचारशून्य है। वस्तुतः ज्ञान की चरम परिणति आचार ही है। ज्ञान अथवा विद्या का मूलभूत लक्ष्य यही है कि व्यक्ति आचारनिष्ठ और संयमनिष्ठ बने । यदि व्यक्ति के सामने यह लक्ष्य नहीं है तो विद्या उसके लिए भारभूत है। ज्ञ प्रज्ञा : प्रत्याख्यान प्रज्ञा
भारतीय संस्कृति में अक्षरज्ञ बन जाना, बहुत-सारे ग्रन्थ पढ़ लेना ही विद्वान् की अर्हता नहीं मानी गई है। यहां विद्वान् उसे माना गया है, जिसने जानने के पश्चात् समग्र दुष्कर्मों का प्रत्याख्यान कर दिया है। शास्त्रों में प्रज्ञा के दो भेद बताए गए हैं---ज्ञ प्रज्ञा और प्रत्याख्यान प्रज्ञा । ज्ञ प्रज्ञा का आशय तत्व को जानेने से है। प्रत्याख्यान प्रज्ञा का आशय असत् की निवत्ति से है। सीधे शब्दों में हेय और उपादेय दोनों को जानने के बाद हेय को छोड़ देना प्रत्याख्यान प्रज्ञा है । हेय को त्यागने के साथ उपादेय को ग्रहण करने की बात तो सहजरूप से जुड़ी हुई है। सार-संक्षेप यही कि ज्ञान की आचारात्मक परिणति नितांत आवश्यक है । सा विद्या या विमुक्तये
वैदिक परम्परा में कहा गया-'सा विद्या या विमुक्तये' । अर्थात् विद्या वही है, जो विमुक्ति की ओर ले जाए। जीवन को बन्धन-मुक्त बनाए। यह उद्घोष भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से विद्या की आचारात्मक परिणति की ओर ही इंगित करता है। आप चिंतनशील हैं, इसलिए स्वयं समझ सकते हैं कि विमुक्ति की ओर कौन ले जा सकता है ? जीवन को बन्धन-मुक्त कौन बना सकता है ? मैं पूछना चाहता हूं, क्या कभी कोई आचारहीन व्यक्ति बन्धनमुक्त बना है ? स्पष्ट है, नहीं बना है। तब यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि आचार ही व्यक्ति को विद्या के परम लक्ष्य-विमुक्ति तक पहुंच सकता है। जीवन को बन्धन-मुक्त अवस्था का शिखर दिखा सकता है ।
जरूरी है ज्ञान और आचार का समन्वय
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