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________________ जीवन संयममय बने पुरुषार्थवादी संस्कृति जैन और बौद्ध दो अलग-अलग परम्पराएं हैं। पर अलग-अलग होकर भी दोनों परंपराओं में और-और परम्पराओं की अपेक्षा काफी निकटता है । इन दोनों ही परम्पराओं की गणना श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत होती है । श्रमण-संस्कृति भारत की एक महान् संस्कृति है । इस संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पुरुषार्थवाद को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, बल्कि कहना चाहिए कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान महावीर से उनके प्रमुख शिष्य गणधर गौतम ने जिज्ञासा की - 'भगवन् ! दुःख स्वकृत है या परकृत ?' इसके समाधान में भगवान ने कहा- 'गौतम ! दु:ख आत्मकृत है, परकृत नहीं ।' उन्होंने बताया कि संसार की प्रत्येक आत्मा को विकास का पूरा-पूरा अधिकार है। यहां तक कि वह अपने कर्तृत्व से परमात्म-पद को भी प्राप्त कर सकती है । जैन परंपरा की तरह बौद्धपरंपरा में भी पुरुषार्थवाद को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जीवन-निर्माण की दिशा Jain Education International ८६ पर आज की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि लोग अपने-अपने धर्म और दर्शन के गौरव - गीत तो बहुत गाते हैं, पर ऊंचे-ऊंचे और जीवनोपयोगी सिद्धान्तों को समझने का प्रयास नहीं करते। ऐसी स्थिति में उनकी दृष्टि बहिर्मुखी बनी रहती है । उनका लक्ष्य अधिक-से-अधिक भौतिक सुख पाने का रहता है । परिणामतः उनके जीवन का सही निर्माण नहीं हो पाता । स्वार्थसिद्धि, येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन को ही वे निर्माण मान बैठते हैं । इसमे अधिक विडंबना एवं बुद्धि - विपर्यास की और क्या बात होगी कि वे ध्वंस को भी निर्माण के रूप में देखते हैं ! यह स्थिति निश्चित ही काम्य नहीं है । इससे उबरने का एकमात्र उपाय यही हो सकता है कि लोग विभिन्न भारतीय धर्मों एवं दर्शनों का एक सीमा तक अध्ययन करें तथा उनके अहिंसा, सत्य और संयममूलक तत्वों को आत्मसात् करते हुए अपने जीवन को अधिक-सेअधिक उनके अनुरूप बनाने का प्रयास करें । जीवन संयममय बने For Private & Personal Use Only १६१ www.jainelibrary.org
SR No.003136
Book TitleMaheke Ab Manav Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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