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व्रत का माहात्म्य
भारतीय संस्कृति त्यागप्रधान संस्कृति है। संपत्ति-सत्ता को भारत वर्ष में सर्वोच्च तत्व के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। सर्वोच्च मूल्य त्याग और संयम को ही प्राप्त हुआ। यही तो कारण है कि बड़े-बड़े धनकुबेर और राजा-महाराजा त्यागी-तपस्वी अंकिचन साधु-संतों के चरणों में सिर झुकाकर अहोभाग की अनुभूति करते रहे हैं। आज भी यह संस्कृति यहां जीवित है। इसका ही प्रभाव है कि यहा व्रत को जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त है।
व्रत आत्म-संकल्प व अन्तर् की दृढ़ता का प्रतीक है। व्रत के द्वारा ही जीवन सुसंस्कृत, जागृत और विकसित बनाया जा सकता है। इसका भी एक कारण है और वह कारण बहुत महत्त्वपूर्ण है। व्रत में वह अद्भुत शक्ति है, जो व्यक्ति में आन्तरिक रूपान्तरण घटित कर सकती है। डंडे या कानून से यह संभव नहीं है। हालांकि परिवर्तन तो उसके द्वारा भी हो सकता है, पर वह परिवर्तन ऊपर के स्तर का होता है, आंतरिक स्तर का नहीं होता । कानून थोपे जाते हैं। डंडे में बल का प्रयोग है। पर व्रत में ये दोनों ही स्थितियां नहीं हैं। व्रत तो आत्म-स्वीकृति से ग्रहण किया जाता है । अणुव्रत आन्दोलन छोटे-छोटे व्रतों के माध्यम से जन-जन के जीवन-व्यवहार को स्वस्थ एवं शुद्ध बनाने का नैतिक अभियान है । इसका आधार अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह-ये पांच तत्व हैं। इन्ही पांच तत्वों को युगीन बुराइयों के परिप्रेक्ष्य में छोटे-छोटे व्रतों का रूप दिया गया है। जीवन-शुद्धि में विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें बहुत सहजता से स्वीकार कर सकता है । जाति, वर्ग, वर्ण, भाषा, सम्प्रदाय आदि सभी प्रकार के भेदों से उसे सर्वथा दूर रखा गया है । अपेक्षा है, लोग इस आन्दोलन को खुले दिमाग से समझे और समझकर आचरण के स्तर पर स्वीकार करें। उनका यह कदम उनके स्वयं के जीवन-निर्माण की दृष्टि से तो वरदायी होगा ही, स्वस्थ समाज एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण में भी अप्रत्यक्ष रूप से योगभूत बन सकेगा।
प्रयाग १० दिसम्बर १९५८
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